उन्मुक्त…

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उन्मुक्त…

उन्मुक्त उड़ान … अनंत आकाश में.. ऊंची…. दूर तक… ब..हु…त… दूर तक …उड़ान की आकांक्षा… स्वप्न… इच्छा… अधबीच से धागा तोड़ उड़ जाने के लिये… शायद हर एक पतंग को ही… स्वप्नपाश में फांसना तो चाहती है…
मगर…

ऊँची उड़ान..


जो भी पतंग धागा तोड़ बंधन मुक्त हो उड़ी…
वह जरा सी देर.तो ऊपर की ओर उड़ती है और फिर लड़खड़ाती हुई तेजी से धरातल की ओर गिरने लगती है…
और धरातल के निकट पहुंचते ही… अकसर लुटेरों की छीना छपटी में तार तार हो बिखेर दी जाती है…

पतंग को डोर से बंधे रह, सीमित विचरण, सुरक्षित अवतरण और पुनः प्रक्षेपण योग्य रहना है या एकाध दो उन्मुक्त उड्डयन में ही जीवन का सार पा लेना उचित मान … तार तार हो बिखर जाना है… यह तो पतंग को ही सोचना होगा …

हालांकि पतंग का कटना या ना कटना खुद पतंग की इच्छा पर कम ही निर्भर करता है… उड़ाने वाले की क्षमता पर और हवा की गति आदि पर अधिक…

फिर भी जो पतंग खुद ही कटने को मरी जा रही हो… उसको सिद्धहस्त पतंगबाज भी… कटने से शायद ही बचा सके…!

अच्छा या बुरा जैसा लगा बतायें ... अच्छाई को प्रोत्साहन मिलेगा ... बुराई दूर की जा सकेगी...

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