मुझ मेंं थोडे़ तुम।…
वो मिट्टी.. वो धूल … वो पारिजात… वो गुड़हल … या वो आम या जामुन या वो बबूल… वो घर जिसमें रहते थे हम … वे घर जिनमें आना जाना था … वो साथी जिन संग बैठना उठना … लड़ना झगड़ना था…. जिन जिन संग मिलजुल बड़े हुए हम… बढ़ते गये … बढ़ते गये…

मगर उन सभी में जरा जरा सा छूटते भी गये… हम… हमारी यादें और हमारी ऊर्जा… थोड़ी थोड़ी उन सभी में रह गई… और थोड़ी थोड़ी उन सबसे निकल निकल आते गई हम में… ऊर्जा का यह आदान प्रदान निरंतर है.. अब भी… हम बढ़ रहे हैं … बड़े हो रहे हैं … और इस तरह धीरे धीरे मुकम्मल हो रहे हैं हम… तुम… ये…वो… और सभी…! – सदगुरू सत्यार्चन