रद्दी होते अखबार..
कुछ कड़वे सच मेंं से एक…
“आज के सभी अखबार आने वाले में अगले आज का अखबार आते तक रद्दी की गठरी में भेज दिये जाते हैं..!”

मगर जो आज वाले आज के अखबार हैं…. वे भी आने वाले कल में उसी रद्दी की गठरी में मिलकर इसी तरह जल्द से जल्द हटाये जाकर जगह खाली कराने लायक हो जाने वाले हैं..!
यह अलग बात है कि कुछ पढ़ाकू अल्फाजों के कद्रदान टाइप के लोग फुरसत के पलों में एक दो बार फिर से उस रद्दी की गठरी की धूल झाड़पोंछकर उसम़ें से दिल को छू लेने वाली लाइनें काट-छांटकर सहेज लेंगे… रिफरेंस के लिये.. किसी रजिस्टर या फाइल में लगाकर सहेज लेंगे… और फिर… आखिरी रुखसत से पहले कभी पलटकर भी ना देखेंगे उस उपयोगी जगह को घेरती.. भद्दी लगती.. गठरी की तरफ …
कुछ बहुत अधिक समझदार. लोग तो अखबार को पहली बार पढ़ने ही पेंसिल लेकर बैठा करते हैं … जो उनके काम का है उसपर घेरा बनाकर हस्ताक्षर कर उनके बाद पढ़ने वालों को जता भी देते हैं कि ये वाली कीमती लाइनें मैंने मेरे पजेशन में रखने के लिये मार्क की हैं … मेरे हक की हैं.. कोई और हक जताने की कोशिश ना करे.. और काम की लाइनें काटकर अलग करने या कराने के बाद वे दुबारा रद्दी की गठरी में पहुंचे कल के अखबार को नहीं देखते … और कोई देखे भी तो क्यों.. नजर भी क्यों डाले… जो भी थोड़ा या बहुत कीमती था वो तो समय रहते ही निचोड़ा जा चुका होगा ..
हालांकि ये जो आज के अखबार हैं वे इतने खुशनसीब भी ना होंगे कि उनमें से काम की कीमती कतरन ढूंढते ही सही कोई एकाध दो बार ही सही उन तक आये भी…
क्योंकि ये चलन भी तो आज रद्दी होते अखबारों के साथ ही चला जाने वाला है…