सबकुछ मिलेगा.. यदि कमल खिलेगा…!
कमल जो गलकर गिरने से पहले कुछ ज्यादा ही दिन टिकता है नयनाभिराम बने रहता है.. ललचाता भी है… इतना कि उस कमल को पाने की कोशिश में इंसान दलदल में उतर कीचड़ में लिपटने तक तैयार हो जाता है…और कैसे भी कमल तक पहुंचना चाहता है..

कमल तो कीचड़ में ही खिल पाता है ना दोस्तो..!
इसीलिए अगर कमल खिलाना है
तो कीचड़ तो करना होगा… लाना होगा.. या फैलाना होगा…
फिर चाहे वह घर का लॉन हो…
चाय का बागान हो..
राजनीति का मैदान हो..
या राष्ट्र रूपी दुकान हो..
पहले कीचड़ के बनो …
हाथ से लेकर गले तक सनो..
तब कहीं आपके बाग में भी खिल पायेंगे कमल..
यही नैसर्गिक गुण है कमल का
बाँधकर रखे ठहरे हुए सड़ते पानी में ही ठीक से पनपता है कमल..
दलदल में ही खिलता है कमल..
खिलने से लेकर गलकर उसी कीचड़ में मिल जाने से पहले तक हर कमल हर किसी के नयनाभिराम दर्शन का कारण होता है…

बस एक बार 2-4 कमल खिलकर गल भी जायें… बाढ़ में.. चक्रवाती तूफानों में… भूकंपों या दावानल में फंसकर… कल को अगर कमल फिर से ना भी खिलें… , तो भी आप कहीं कीचड़ से दूरी मत बना लीजिएगा..
कीचड़ सहेजकर बनाये रखेंगे… तो आने वाले कल में फिर से कमल के खिलने की संभावना तो बनी रहेगी… और पुष्पित कमल से नयनसुख की आस आपको जिन्दा ही नहीं… जिन्दादिल भी बनाये रखेगी…!
इसीलिये कीचड़ से घृणा मत कीजिये और ना दूरी ही बनाइये..
. कुछ नादान लोग नीम रोपने की वकालत करते भी मिलेंगे…
मगर आगे आने वाले कल में.. कोरोना का रोना-धोना फिर से ना हुआ तो? कौन पूछेगा नीम.. यानी प्राकृतिक आक्सीजन कंसंट्रेटर को…?
इसीलिये उगाना हो… खिलाना हो..
तो कमल ही खिलाना..!

अभी परसों-नरसों..नुक्कड़ पर कुछ उत्साही यथार्थवादी पीपल आँवले का गुणगान करते भी मिले
तो वर्माजी भी दोनों के 4 – 4 पौधे ले आये.. और लगा भी दिये.. मगर हनुमान जी के भक्त सैनिक यानी बानर आये और वर्माजी के पौधे रोपकर हटते ही पवित्र पीपल के ज्यादातर पत्ते उदरस्थ करते करते पीपल के पौधे ही खींचकर ले गये… अब रामभक्त हनुमान जी की सेना के रहते वर्माजी पीपल लगाने की मूर्खता शायद आगे तो कभी नहीं करने वाले… की भी तो पवित्र पीपल भगवतभक्त बानरों की भूख की भेंट ही चढ़ेंगे!
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वर्मा जी पीपल छिनने के बाद भी खुश ही थे .. आँवले जो बच गये थे..
मगर उसी शाम ‘दिव्यांत औषधि’ आश्रम के 10-12 शिष्य गाली गलौज करते आये और उखाड़कर ले गये… जाते जाते वर्माजी को सुधर जाने की धमकी भी दे गये… “हमसे पूछे बिना इस देश में कोई मेडीशनल प्लांट लगाने की भूल नहीं करता… और तुम… अमृत (आँवला) ही लगा लिये..? क्या सोचकर लगाये थे? अभी तो हम इज्जत से (?) बात करके चुपचाप (?) अमृतपौध लिये जा रहे हैं… अगर फिर से लगे दिखे तो तुम्हें भी ऐसे ही लटका लेंगे…” आगे की बातें वर्माजी सुन ही नहीं पाये.. क्योंकि धमकाने वाले धमकाते धमकाते दूर जाते जा रहे थे…
ऐसे में तो सभी का इरादा साफ होना ही चाहिए.. झंझट में क्योंं पड़ना.. जब भी उगाना.. कमल ही उगाना.. जब भी खिलाना… कमल ही खिलाना….
कुछ ज्यादा थोड़े करना पड़ता है..
बस कहीं भी खूबसूरत सी जगह या बाग या आँगन में गड्डा खोदो.. पानी से भर दो.. कीचड़ सड़ने दो… फिर किसी भी ‘बागान्ध’ से मिलकर उसके बाग की शान में चार छ: कसीदे पढ़ दो… वो खुद ही अपने रंगबिरंगे कमल के कीचड़ भरे मधुवन (जंगल) में से लाकर 2-4-10 पौधे आपको दे देगा .. खुद ही निकालकर आपको थमा देगा.. हफ्ते दस दिन में नियमित कमल की कैफियत भी पूछता रहेगा… और नये-नये टिप्स भी देता ही रहेगा..

फिर कुछ और क्यों सोचना … कहीं और क्यों जाना.. कमल को ही खिलाना..
अरे भाई वो वाला खिलाना नहीं
कहीं आप मुँह से खाने वाला खिलाना मत समझ लीजिएगा… इसीलिए बता दूँ कि कमल का खाने-खिलाने से संबंधित इतिहास कहीं नहीं मिलता… ना ही कमल का खाने पीने से कोई लेना-देना ही होता है… हाँ कमल पुष्प की पंखुड़ियों के टूटकर कीचड़ में मिलने के बाद पुष्प की जगह फलों के ले लेने पर ही बह खाने योग्य कमल गट्टा या मखाना या कमलदंड बन पाता है..
उससे पहले तक तो वो नयनाभिराम… दर्शन में ही अद्वितीय होता है!
जरा कल्पना कीजिये कि आपके आसपास चारों ओर रंगबिरंगे कमल खिले हुए हैं… सभी कमल पुष्प निर्मल जल में तैरते हुए खुशबू फैला रहे हैं तो आपका , आपके कमल को पसंद ना करने वाले स्वजनों का भी, और अड़ौसियों पड़ौसियों तक का मनमयूर, इस मनोहारी वातावरण से आल्हादित हो नृत्य ही ना करने लगेगा ?
जरूर करेगा… और… इसी तरह हर घर.. हर परिवार और हरेक के अड़ौस पड़ौस के घरों में भी सुख का आभास व्याप्त होता चला जाये तो सभी मोहल्ले, शहरों से होते हुए सारा देश ही कमलपुष्पों के नयनसुख से भरकर खुशहाली में नहीं जी रहा होगा..? जरूर होगा…! और तब.. विकास तो चुटकियों में होते दिखेगा..!
क्योंकि अच्छा देखने से सुख मिलता है.. सुख से सौहार्द तथा सौहार्द से सम्पन्नता… तो.. सामाजिक विज्ञान के नियमों के अधीन प्रमाणित है ही..
सुप्रसिद्ध श्लोक “सर्व भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामयाः .. (सभी जगह सब सुखी हों, सब निरोगी हों..) का मूल भाव भी, श्लोक की अंतिम दोनों पंक्तियों में वर्णित है… इसमें “…. सर्वै भद्राणि पश्यन्तु ” से
भला देखना (दिखाना भी) इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि.. पौराणिक मनीषियों के कथनों में सभी जगह सुखकर दर्शन को महानतम बताया है.. भले वे वास्तविक हों या अवास्तविक.. मगर सुखकर के आभास मात्र से “… मा काश्चित दुख्भाग्भवेत” को सार्थक होना कहा है.. (अर्थात नयनाभिराम दर्शन मात्र से.. प्रसन्न चित्त हो सकें तो निरोगी और सुखी दोनों का होना जरा में संभव हो जायेगा!)
(यही संदेश है ना.. इस श्लोक में? मैं गलत कह गया होऊँ तो बताइये.. सुधार लूँगा!)
रही बात देखते ही उबकाई लाने वाली कीचड़ की गंदगी की…
और गड्ढों में बाँधकर रखे सड़ते पानी में दबे कीचड़ से उठती सड़ांध भरी बदबू की…
तो ये सब तो तब तक ही प्रश्न उठाते… सड़ाते लगेंगे.. तभी तक कष्टकर मेहसूस होंगे… जब तक कि गड्ढा अच्छी तरह सुंदर महान कमल पुष्पों से भर ना जाये… बस कैसे भी.. सड़ते पानी में एक बार कमल पुष्प खिल तो जायें..
फिर कमल की खुशबू मेहसूस कीजियेगा या पानी की सड़न?
वैसे भी कमल खिलाने से पहले ही, गंदगी में गिना जाने वाला कीचड़, पानी की मोटी-पतली परत से ढंकना ही होता है..
और जब ठहरे सड़ते हुए पानी पर कमल खिलकर लहलहा आये.. तो कीचड़ और पानी की सड़ांध से भरा गड्ढा हो.. या तालाब.. या फिर सीवेज टेंक ही क्योंं ना हो.. सब के सब पवित्र सरोवर माने जाने के अधिकारी हो जायेंगे…
तब यदि भूलवश भी कोई सड़ांध की शिकायत करने का साहस करेगा तो उसे सनातन ‘धर्मपरायण’ जनता यानी भक्त ही अधर्मी और धर्मविरोधी बताकर ठिकाने नहीं लगा देंगे..!
यदि “सर्वेसन्तु सुखिनः …” का कर्णभेदी उद्घोष करते हुए “… सर्वेभद्राणि पश्यन्तु ” तक का लक्ष्य पा लिया गया तो निश्चय ही “…मा काश्चित दुख्भाग्भवेत” को सारी दुनियाँ के सामने, ताल ठोंककर सिद्ध होता दर्शाना बहुत सरल हो सकेगा!
तो चलिये आप हम सब कीचड़ करने में प्राणपण से जुट जायें…
पूरे चमन में कमल ही कमल खिलायें!
– सद्गूरु ‘सत्यार्चन’ सुबुद्ध