आखिर नग्न नारी और व्यभिचार कैसे बन गये वैश्विक व्यापार का आधार?
आज का विश्व सतही तथा छद्म नारीवादी मानसिकता का पोषक दिखता अवश्य है किन्तु वास्तव में है नारीत्व के विनाश का पोषक ही..!
जबकि हमारी भारतीय संस्कृति सम सम्मानित नरनारी वाले समाज की पोषक है..!
हालाकि आज का वैश्विक बाजारवाद हमें पतित करने की योजनाबद्ध चालें चलने में लगा है… उसकी कुत्सित चालों के कुचक्र में फँसकर ही, हमारी भोलीभाली संतानें, बेटे-बेटियां बहिन-बहुएं उनके प्रदर्शित पथ पर दौड़े चले जा रहे हैं..!
हमारी संस्कृति में, सदैव से, वे सभी नर-नारी सम्माननीय हैं जिनका, आचरण आदर्श है… और वे सभी निंदनीय जिनमें दुष्टता हो..! अर्थात सदाचारी तथा सज्जनों का सम्मान सदैव से था, है… और सदैव रहेगा भी… और दुष्टों, दुराचारियों के लिये ना कभी समाज में स्थान था.. ना है और ना कभी हो ही पायेगा!
साथ ही हमारी समृद्ध संस्कृति में, सदैव से, सज्जन नरों के बीच, सदाचारी नारियों का सम्मान, समकक्ष नर से कई गुणा अधिक रहा है..। इसी तरह समस्त सद्भावी नारियों के बीच सद्भावी-सदाचारी नर भी सदैव ही सम्माननीय रहे… आज भी हैं और सदैव रहेंगे!
.
हालाकि आज सोची- समझी अंतरराष्ट्रीय बाजारवादी साजिशों के कुचक्र में भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों को सर्वाधिक लक्षित किया जा रहा है.. इसी कुनीति के अधीन, सद्भावी पुरुषों और सदाचारी स्त्रियों का जमकर मखौल उड़ाया जा रहा है.. उन्हें पिछड़ा … अविकसित.. और असभ्य बताया जाकर बच्चे-बच्चियों को उद्दंडता की ओर … असामाजिक आचरण की ओर.. ले जाया जा रहा है…!
इसका सबसे बड़ा कारण है बाजार वाद के अधीन चल रहा समूचा संसार… आज अधिकांंश देशों की सरकारों का, बाजारवादी व्यवस्था का पोषक होना स्पष्ट परिलक्षित है..!
आज के वैश्विक बाजार में सबसे बड़ा व्यापारों में शीर्ष पर सौंदर्य प्रसाधनों का व्यवसाय है.. और सौंदर्य प्रसाधनों का क्षेत्र बड़ा करने के लिये पहले चेहरे खुले रखने पर काम किया गया.. फिर सौंदर्य प्रसाधनों के बढ़ते बाजार की भूख ने एक शरीर में केवल एक चेहरे से आगे निकल एक शैतानी विचार का प्रयोग कर हर शरीर के एकमात्र चेहरे से कई गुणा अधिक शेष शरीर के खुले रहने की बाजारू आवश्यकता पर काम करना शुरु किया! लम्बे समय से बहुराष्ट्रीय कास्मेटिक कंपनियाँ योजनाबद्ध एवं संगठित होकर कार्य करते आ रहीं है.. स्कूल-कॉलेज क्वीन से लेकर विश्वसुंदरी तक होने वाली प्रतिस्पर्धायें इसी कुत्सित बाजारू माँग की देन हैं! कभी सोचा ही नहीं हमने कि कौन कराता है ये प्रतियोगितायें? क्यों कराता है और क्या पाने के लिये कराता है? कभी सोचा ही नहीं कि केवल 1990 के दशक के आसपास ही बहुत सारी विश्वसुंदरियाँ भारतीय कैसे बनीं ? क्या 1975 से 1999 के 25 वर्षो के अंतराल से पहले और उसके बाद भारत में सुंदरियाँ नहीं हुईं?
और जब नारी की अधिकांश देह के खुल जाने पर भी बाजारू प्यास मिटते नहीं दिखी तो नारी सौंदर्य से आगे निकल अब पुरुषों के सौंदर्य पर काम किया जा रहा है.. !
इन्हीं उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये समलैंगिकता तथा व्यभिचार जैसी अनुचित सोच को खुलकर प्रचारित, प्रसारित तथा पोषित किया जा रहा है…!
नर-नारियों को व्यभिचारोन्मुख भी केवल इसी बाजारवादी आवश्यकता की पूर्ति के लिए बनाया जा रहा है…
इस बाजारवादी उद्देश्य की प्राप्ति में प्रबुद्ध, सदाचारी, सद्भावी तथा सज्जन सबसे बड़ी बाधा हैं अत: उन्हें ही सबसे पहले रास्ते से हटाया जाना भी बाजार की आवश्यकता है.. इसीलिये इन्हें और इनके कार्यक्षेत्रों को नगण्य, अनुपयुक्त या अप्रासंगिक दिखाया जाकर दरकिनार करने के प्रयास चल रहे हैं…!
.
इन सभी परिदृश्यों के परिप्रेक्ष्य में, और हाल के महामारी काल में, विलासिता युक्त लोगों को सबसे अधिक नुकसान तथा प्राकृतिक जीवन अपनाने वालों को सबसे अधिक सुरक्षित देखकर ऐसा लगने लगा है कि अब प्राकृतिक निर्मिति के अनुरूप आचरण के समर्थकों का हाथ मजबूत किया जाना चाहिये…! फिर चाहे वह हमारे लोग हों या हमारे प्रतिस्पर्धी… पड़ौसी ही हों.. !
क्योंकि आधुनिकता और क्षेत्रवादी राजनैतिक संरचना की कड़ी प्रतिस्पर्धी विकास की दौड़ ने वैश्विक जीवन की दीर्घकालिक संभावनाएं समाप्तप्राय कर दी हैं.. धरती पर जीवन समाप्ति की ओर दिखने लगा है..
ऐसे में; वैश्विक सद्भाव ही विश्वकल्याणकारक सिद्ध हो सकता है…
जिसके लिये हमें विशालहृदयता का परिचय देते हुए, मानवता के हित में, दुश्मन और दुश्मनी पर पुनर्विचार करना चाहिए अब …
“दुश्मन से दुश्मनी रख दुश्मन को मिटा देने की मानसिकता से ऊपर उठकर; दुश्मनी से दुश्मनी कर दुश्मनी को ही जड़ से मिटाने की मानसिकता के पोषण की आवश्यकता है!”
तालिबानी अफगानिस्तान में वही कर रहे हैं जो उनके 99% लोगों की पसंद है.. तो उन्हें वह करने का अधिकार क्यों ना हो..। तालिबानी उनके देश या उनके समाज को उनके लोगों के अनुरूप बनायें तो इसमें गलत क्या है..?
(हाँ किन्तु तालिबान को यह अवश्य समझ लेना चाहिये कि भारत की ओर तिरछी दृष्टि डालने वाली आँख सदा के लिये बंद कर देगी भारत की सेना ! )
भारत में 700 – 800 साल की मुगलिया कोशिश़ें कामयाब ना हो सकीं ना ही 150 – 200 साल की अंग्रेजी.. तो अब भी… या कभी भी.. कोई भी कुत्सित कोशिश कामयाब नहीं हो सकेगी…!
बस हम हमारे बच्चों की मानसिकता को दूषित ना होने देने का प्रयास सघन कर लें..
हमारी समृद्ध प्राकृतिक जीवन युक्त संस्कृति को सुरक्षित तरीके से पालकर, अगली पीढ़ियों तक पहुँचाते रहें; तो, हम समृद्ध भी होंगे.. सबल भी.. और दिनोंदिन और अधिक सफल भी होंंगे ही!
– ‘सत्यार्चन’