क्या कुदरत का कहर है कोरोना? -1

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क्या कुदरत का कहर है कोरोना?
               अंग्रेजी में एक गाना है ‘कम सेप्टैंबर…’ जो किसी समय दुनिया भर में बहुत पॉपुलर रहा…  मगर अब एक नए गाने के भयानक पॉपुलर होने का समय आ गया है ‘केम नवंबर…’
क्योंकि नबंवर के जाते जाते नया वायरस आ गया है ‘ओमनीक्रॉन’ !
है तो यह Covid-19 का एक प्रतिरूप जो 32वें परिष्करण के बाद बहुत खतरनाक माना जा रहा है!  WHO ने इस नए इस कोविड-19 स्ट्रेन को बेहद तेजी से फैलने वाला बताया है और इसे नया नाम Omicron दिया है. इसके खतरनाक होने का संभावित कारण किसी एड्स या एचआईवी से पीड़ित को हुए कोविड संक्रमण माना जा रहा है…!

हम सभी, 2019 से ही, भारत में भी हर साल नबंवर-दिसंबर में, एक नये वायरस या वायरस के नये वैरिएंट की एक नई लहर का आना देखते आ रहे हैं। ऐसी लहर जो दुनियाँ के किसी एक देश के एक कोने से शुरू होती है और पूरी दुनिया पर छा जाती है।
जो मजबूर कर देती है पूरी दुनियाँ को… मजबूर कर देती है वह सब करने.. जो प्रकृति के संरक्षण के लिये जरूरी  है.. !  माँ प्रकृति अपने बच्चों को मजबूर करती है वह करने जिससे प्राकृतिक संतुलन बना रह सके.. !
तो क्या प्रकृति माँ अपने बच्चों की दुश्मन हो गई है?
वास्तव में ऐसा है नहीं। प्रकृति तो हम सबकी माँ के रूप में है! प्रकृति तो सारे संसार की संरक्षक है! तो प्रकृति शत्रु कैसे हो सकती है?
तो फिर इस समय प्रकृति का ऐसा भयंकर रूप क्यों है?
  शायद इसलिए कि कई बार हमारे माता-पिता, जो अपनी संतानों को हर तरह का सुख सुविधा संपन्नता में देखना चाहते हैं, वे भी,  कभी-कभी दंड का, बंदियों का प्रयोग करते हैं…  किन्तु शत्रु तो नहीं होते! वे अपने उन नादान बच्चों को किसी लुभावने मगर अहितकर पथ पर चलने से रोकने के लिये, बच्चों के हित में ही, रोकटोक का .. बंदियों का.. सजाओं का.. उपयोग
करते हैं.. या करने के प्रयास करते रहते हैं…!  कई बार नादान बच्चे समझ नहीं पाते और अनजाने में, अपने पालकों को शत्रु समझने का भ्रम पाल, अहित की ओर चल देते हैं.. !
ऐसा अहित रोका जा सके इसीलिए माता-पिता बलपूर्वक या दंड देकर भी बच्चों से वह करवाने का प्रयास करते हैं जो उनके लिए उचित है… ठीक ऐसा ही प्रकृति और उसके हम सब बच्चों  के साथ भी है..!
प्रकृति; जो सारे संसार की माँ की तरह है.. या पिता की तरह..  या  माता-पिता दोंनों की ही जगह है…  वो अपनी संतानों से बहुत प्रेम करती है किंतु अपने उन नादान बच्चों को जो प्रकृति से दूर हो, स्वयं का अहित करने जा रहे हों उन्हें बलपूर्वक वह सब करने से रोक रही है जो उनके हित में नहीं है…!  प्रकृति माँ हमें वह करने विवश करना चाह रही है.. जो हमारे हित में है..!
इसीलिए, पिछले कुछ वर्षों से, नए-नए वायरस के रूप में, अतिवृष्टि, भीषण बाढ़ और तूफानों के रूप में, भूकंपों की श्रंखला के रूप में तथा अन्य प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भी हम सबको हमारी प्रकृति माँ रोक रही है…! प्रेरित  कर रही है वह करने जो हम सबके हित में है…!
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यदि हम अपने संसार को एक बहुत बड़ा घर मान लें, तो हमारी धरती ही हमारे घर का भूतल और  आँगन हुआ, नीला आसमान हमारी छत और वायुमंडल हमारे घर की फालसीलिंग हुआ.. मानव और शेष जीवजंतु इस घर के रहवासी हुए.. पेड़पौधे वनस्पतियाँ इस घर के वे आधार स्तंभ (खंबे) हुए जिनपर घर की फालसीलिंग और छत टिकी हुई है… विभिन्न देश इस बड़े घर वे कमरे हुए जिनकी सीमाएं हमारे बहुत बड़े घर की जालीदार दीवारों की तरह हों … ! हम दुनियाँ वासी अपने अपने कमरों के फर्श, आँगन तक ही सोच पा रहे हैं … हमारे घर की फालसीलिंग और छत पर हम अपेक्षित ध्यान नहीं दे पा रहे.. जो बहुत जरूरी है…! फालसीलिंग के महत्व से तो अधिकांश लोग अंजान ही हैं।
प्रकृति माँ हम सबका ध्यान हमारे उन कर्तव्यों की ओर दिलाना चाह रही है जो इस बहुत बड़े घर को बनाये रखने के लिये जरूरी हैं…!
क्योंकि यदि घर की फालसीलिंग, छत खंभे, या दीवारें खण्डित हुईं तो प्रकृति माँ भी हमें संरक्षित ना रख सकेगी.. तब ना तो मानवता बचेगी और ना ही किसी अन्य जीव का जीवन संभव हो पाएगा..।
इसीलिए यदि हमें यह लग रहा है कि प्रकृति माँ  रुष्ट हो दुष्ट हो गई है तो यह पूरी तरह सही नहीं है.. वह रूठी नहीं है..।  वह तो हमारा हित चाहती है.. और हित प्रकृति के संरक्षण में है!  प्रकृति के अनुरूप रहने अर्थात प्राकृतिक रह-सहन में है.
इस कथन को और स्पष्ट इस तथ्य से भी समझा जा सकता है कि…
विश्व में जितनी भी आदिम जातियां हैं उनमें से वो जो अब भी पूरी तरह आदिम तौर तरीकों से ही रह रही हैं उनमें एक जनजाति का नाम है जरावां। जरावां जनजाति अफ्रीका में पाई जाती है इन जरावांओं  का निरंतर वर्षों तक वैज्ञानिक अध्ययन किया गया जिसके परिणाम में आश्चर्यजनक रूप से उन्हें पूर्ण निरोग पाया गया…!   वे आजीवन किसी बड़ी व्याधि का शिकार नहीं होते…  वे बीमार नहीं पड़ते ही नहीं.. ना केवल जरावां बल्कि भारत के आदिवासी अंचलों में निवासरत यहाँ की जनजातियाँ भी जो आदिवासी कहलाते हैं… जो सभ्य समाज से …  आधुनिकता से दूर हैं..  उनमें भी वैसी ही प्राकृतिक रोग प्रतिरोधक क्षमता पाई जाती है जो उन्हें बार बार बीमार  पड़ने से रोकती है… उन्हें किसी बड़ी बीमारी का शिकार होने ही नहीं देती … ना उन्हें टीबी होती है.. ना कैंसर.. ना एड्स.. ना ही कोई और बड़ी बीमारी … और ना ही कोरोना… !
हालांकि नया वेरिएंट कोविड 19 अफ्रीका से ही निकल कर आया है.. जिसे विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा बहुत खतरनाक और तेजी से फैलने वाला बताया है..! 
  अब आप हम आदिम जातियों की तरह तो रह नहीं सकते..! बल्कि दुनियाँ भर की आदिमजातियों को  शेष संसार की तरह बनाए जाने के प्रयास किये जा रहे हैं जबकि प्रकृति चाहती है कि शेष संसार भी उन आदिमजातियों की तरह प्राकृतिक रहने लगे …
तो समाधान क्या है?
समाधान मध्यमार्ग में है…
कैसे?
अगले भाग.. (2) में… (मेरे ब्लॉग लेखन हिन्दुस्तानी पर.. शीघ्र ही.. फॉलो कर रखिएगा! )

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