अपनी ऊंचाई पर छत इतराई
और एक मंजिल बनी
तो छत ने शान गँवाई…

पर हम तो पत्थर नींव के….
हैं हम ही आधार …
हम सत्य…
स्थिर.. अविचल… अटल..
और अदृश्य भी…
जो बाहर से देखते हैं
उन्हें हम दिख पाते नहीं
दिखते हैं तो कंगूरे…
छतें.. खिड़कियां.. दरवाजे
रोशनदान और दीवारें…
और जो दिखते हैं
उन्हीं की तो बात होती है..
होती उन्हीं की पूछताछ…
देखभाल… साज-सम्हाल
उनको ही तो मिलता है
प्यार.. दुलार…
वही भूखे तारीफों के
होते भी वही हकदार…
ना हम दिखते
ना जाने जाते
ना पूछे.. ना सराहे…
मगर फिर भी
हैं तो हम ही
आधार…
हमें ही पता है
और याद भी
हमें ही रखना है
कि बने रहना है
हमें
सदैव जिम्मेदार…!
. .
– ‘सत्यार्चन’