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सतदर्शन -6 ‘जय श्रीराम’ और ‘जय जय सियाराम!’

जय श्रीराम’ और ‘जय जय सियाराम!’

श्रीराम के वर्तमान समर्थकों में से अधिकांश समर्थ प्रचारक;

परिवार , पत्नी और स्त्री जाति के विरोधी हैं…

शायद इसीलिए उनका ‘सियाराम’ से विरोध है…!

किंतु यदि ‘श्रीराम जी’ के जीवन में ‘सिया जी’ ना आई होतीं तो..?

तो जनसाधारण का उत्तर तो सीधा सा यही होगा कि तब श्री राम भी प्रतिष्ठित अवतारी श्रीराम ना हो पाते …

किंतु ‘महान’ लोगों से इसी प्रश्न के भिन्न उत्तर संभावित हैं… वैसे महान जिनने ‘सामान्य सामाजिक जीवन (घर-परिवार, व्यापार, कुलगत व्यवहार आदि) का परित्याग कर आजीवन सामाज की सेवा में रत (?) रहने का संकल्प लिया है.. वे संत जन, साधु, महात्मा एवं नेतागणों का साझा उत्तर तो उन्हीं के एकल जीवनयापन के निर्णय से, स्वतः स्पष्ट हो जाता है..! कुछ ऐसा कि…

“तब तो श्रीराम के जीवन में समस्यायें ही ना होतीं… रावण से युद्ध भी ना होता और शायद श्रीराम और रावण दोनों ही खुशहाल जीवन जी रहे  होते!”

जबकि इसी प्रश्न को बौद्धिक कसौटी पर कसने पर यथार्थ कुछ और ही दिखता है ….

“तब तो श्रीराम की शक्ति, सिद्धि और प्रसिद्धि सभी संभवतः आधी भी ना रह पातीं! 
और केवल सियाराम ही क्यों… राधा-रुकमणि-श्रीकृष्ण के संबंध में भी यही दर्शित है… और यही शिव-शक्ति, लक्ष्मी-विष्णु आदि देवी-देवों.में भी…!

शायद तभी भारतीय दर्शन में कोई भी देव या अवतार बिना नारी/ स्त्री/ शक्ति के समर्पित सहचर्य के कहीं वर्णित नहीं दिखता…!

ना ही महर्षि नारद के अतिरिक्त कोई एकल वंदनीय ही वर्णित है…!
हालाकि असुरों के उदाहरण इसके ठीक उलट हैं…
आसुरी शक्तियों में स्त्री और पुरुष दोनों ही अकेले अकेले या एक दूसरे के विरुद्ध खड़े रहकर ही चर्चित हुए दिखाये गये हैं.. !

सभी राक्षस और राक्षसियाँ पृथक पृथक एकल एवं स्वनामधन्य हैं.. सभी कुप्रसिद्ध. अपने अपने दम्भ के अतिरेक से पीड़ित रहे हैं… असुरों के शौर्य प्रदर्शन के स्थान पर उनकी अवसरवादिता या दुस्साहस की कथायें ही वर्णित हैं… !
इसीलिये वर्तमान विश्व ;  देवों के दिव्यत्व से बहुत दूर और दानवी व्यवहार के सन्निकट अधिक दिखता है…!

आज विषपायी शिव की तो आशा रखना  ही व्यर्थ है…

अब तो शिव समान विषपान सक्षम भी,

अपने साम्राज्य के संरक्षण में,

अपने हाथों में मधुघट प्रदर्शित कर,

घट में कुटिलता पूर्वक विष भरकर,

छलपूर्वक निर्बल वंचित याचकों के बीच वितरण करते दिखते हैं..!

-‘सत्यार्चन’

traffictail
Author: traffictail

2 thoughts on “सतदर्शन -6 ‘जय श्रीराम’ और ‘जय जय सियाराम!’”

  1. कुछ उलझन सी है विचारों में, पर लिखा जो है, पढ़ना अच्छा लगा ????

    Reply
    • आभार एवं धन्यवाद्!
      लेखन का उद्देश्य सामान्यत: किसी नवाचार को लोकप्रिय तरीक़े से परोसना होता है किंतु हमेशा नहीं… ! कभी-कभी यह किसी 1 के कथन पर उसे इंगित प्रतिक्रिया भी होता है (यह वही है!) और कभी खुद की खुद को दिशा/ मार्ग/ सहारा देने की कोशिश भी …
      आप पारखी हैं !
      पुनराभार !
      ????????????????????

      Reply

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