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भाग्य और कर्म दोनों आधे ही सच हैं…

भाग्य आधा सच है  और कर्म भी आधा ही … क्योंकि जन्म के पूर्व से लेकर समझदार  होने तक अधिकांश आपका चयनित नहीं.. प्रारब्ध वश होने वाली प्राप्ति है! यह एक प्रश्न से भी स्पष्ट हो जाता है कि  जहाँ हम या आप जन्मे … हम वहीं उसी कुल में क्योंं जन्मे? अर्थात जन्म तो  पूर्णतः भाग्य पर ही हुआ ना?  किन्तु यह  अवश्य ध्यान रखिए कि वह भाग्य भी पूर्व संचित कर्मों से ही निर्मित हुआ है अर्थात भाग्य के निर्माता भी होते कर्म ही हैं..

                     इसीलिए भाग्यवश होने वाला शुभ और दुर्भाग्यवश होता अशुभ परमात्मा का पूर्ण संतुलित न्याय मात्र है.. आप अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप अच्छा और बुरा करके भूल सकते हैं…  किंतु वह जो सुपरपॉवर है उसके पास अनेक स्वचालित सुपरकंप्यूटर हैं वहाँ सब संचित होते रहता है… और एक के बाद एक क्रमशः शुभाशुभ के रूप में फल मिलते / घटित होते ही रहता है..

  फिर जब आप आपके और मैं मेरे मात-पिता के घर जन्मे तो जन्म से लेकर वयस्कता तक … आत्मनिर्भर होने तक या स्वतंत्र अस्तित्व धारण  करने तक आपका पोषण जिस जिस जन द्वारा, जैसे जैसे धन या साधनों  से हुआ होगा वह भी तो आपके कर्मफल का अंग बनेगा या नहीं बनेगा.. ?

अवश्य बनेगा ..!:

जिन अन्न, वस्त्र, सुविधाओं और साधनों के साये में पलकर बाद में आप स्वावलंबी हो सके उनके लिये जो धन या साधन उपयोग में आये…. जो आप पर  खर्चे गये उन साधनों या धन को जुटाने में यदि किसी की रोजी, रोटी, खेती, बेटी या बोटी छीनी या चुराई या बेची या काटी गई हो तो उसमें आप भी सहभागी हुये ना? भले अनजाने में ही किंतु उपभोग कर उसमें शामिल तो हुए ना तो दोषी क्यों नहीं माने जायेंगे? जरूर माने जायेंगे…  जिस-जिस खरीदे हुए, किराए के या पैतृक भवन में आप रहे उस भवन के निर्माण में घटित दुर्घटनाओं के दोष में भी आप और आपका परिवार सभी सहभागी हुए… इसीलिए कई बार आजीवन सतकर्मियों को भी दीर्घायु तक दीर्घकालिक विपदाओं में घिरा देखा जाता है…! किन्तु जो संत स्वभावी सज्जन (सतजन) विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्यपूर्वक सतपथ का पथिक बना रहता है एक दिन उसको प्रकृति आशीषित अवश्य करती है … या यूं कहें कि करना शुरू करती है तो करते ही जाती है … ऐसा सतकर्मी कैसे भी दुर्भाग्य को भाग्य में बदलने में सक्षम होता है …

संचित कर्म से निर्मित भाग्य  के अनुरूप कुल में जन्म के बाद आत्मनिर्भर होने तक भाग्य के अतिरिक्त शेष सब कुछ व्यक्ति अपने कर्मों से स्वयं निर्मित करता है..!

धैर्यहीन और धैर्यवान दोनों ही अपने अपने कर्मानुसार अपने अगले जन्म के कुल के निर्धारक भी हैं..! ठीक वैसे ही जैसे कि पिछले कर्मों से इस जन्म के निर्धारक हुये थे!

  हरिऊँ!  ????????????????????

‘#सत्यार्चन_का_सतदर्शन’!

traffictail
Author: traffictail

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