• 7k Network

हिन्दुत्व है क्या? जानियेगा? – भाग 2- “पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व हैं श्राद्ध!”

हिन्दुत्व है क्या? जानियेगा? – भाग 2 -पूर्वजों के प्रति श्रद्धा का पर्व हैं श्राद्ध!

सनातन संस्कृति एक अति संतुलित, सर्वथा उपयुक्त व अनुकरणीय सामाजिक जीवन पद्धति (लाइफस्टाइल) है! विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप के परिप्रेक्ष्य में ! पूरे वर्ष के विभिन्न मौसमों और विभिन्न क्षेत्रों की स्थानीय परिस्थितियों तथा जलवायु के अनुरूप मुहूर्त सहित, समयानुकूल तीज त्योहार, व्रत-उपवास, पूजापाठ आदि सभी शास्त्रोक्त एवं प्रचलित हैं!

सनातन के युक्तियुक्त (तार्किक/ वैज्ञानिक) होने का सबसे बड़ा प्रमाण तो; केवल ज्योतिषीय गणनाओं की पद्धति ही दे देती है! भारतीय ज्योतिष शास्त्र में कालनिर्णय का आधार ग्रह नक्षत्रो की चाल के सापेक्ष निर्मित इतनी विकसित विधि है कि पृथ्वी के किसी भी स्थान का स्थानीय समय मान भारतीय (सनातनी) ज्योतिषीय गणनाओं से प्राप्त समयमान एक जैसे हैं ! ज्योतिषीय गणनाएं किसी प्रत्येक स्थान पर होने वाले सूर्योदय, सूर्यास्त, चंद्रोदय, चंद्रास्त के समय की सटीक गणना में सक्षम हैं ! चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण की गणनाओं में तो विज्ञान से बहुत आगे है … विज्ञान केवल आने वाले कुछ ही ग्रहणों की विस्तृत जानकारी दे पाता है क्योंकि विज्ञान की गणनाओं का आधार पिछला घटित ग्रहण  है जबकि ज्योतिषीय विधि वर्षों  पहले भविष्य के ग्रहणों की विस्तृत पूर्व सूचना देने में सक्षम है! खगोलीय ग्रह नक्षत्रों  की स्थिति /गति पर एक सटीक गणना फलक होना हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों के खगोलशास्त्री होने को इंगित करता है! ग्रह नक्षत्रों की खगोलीय गति तथा अक्षांश देशांश आधारित गणनायें ही ज्योतिष शास्त्र में हैं और वही  स्थानीय समय की गणना की वैज्ञानिक विधि भी है! और यह छोटी बात नहीं! 

सनातन संस्कृति में वैसे तो पूरे वर्ष समस्त देव शक्तियों को समर्पित पूजनपाठ , यज्ञ व्रत अनुष्ठान प्रस्तावित हैं किंतु  आषाढ़ मास की  ग्याररस से दिव्य देवऊर्जाओं के शयन का काल (यानी रात्रि काल) माना जाता है! हालाकि इसी दिव्य रात्रिकाल में सर्वाधिक व्रत व पूजन प्राणप्रतिष्ठा व यज्ञ व हवन आयोजित किए जाते हैं !

इसी दिव्य रात्रिकाल के मध्य में पितृपक्ष आता है जिसमें दिव्य (देव/ देवी / दैवीय/ देवता) शक्तियों द्वारा‌ कोई भी यज्ञाहूति, हवन, पूजन, व्रत, अनुष्ठान आदि अस्वीकार्य होते हैं! आश्विन मास के पूरे शुक्लपक्ष में सनातन जन अपने पूर्वजों यानी पितरों यानी प्रेरकों को ही मान, ध्यान,पूजन, यज्ञाहूति, प्रसाद आदि अर्पित करते हैं! एक तरह से देव ही आपसे आपके और देवों के बीच की कड़ी, आप के प्रेरकों के प्रति, आपके कर्तव्यों का पुनर्नवीनीकरण करने आपको बाध्य करते हैं… और इसीलिए इस पखवाड़े में देवगण पूजन, अनुष्ठान, हवन,  भोग आदि नहीं स्वीकाते ताकि आप याद रखें कि –

रहीमन देख बड़ेन को लघु ना दीजिये डार; जहाँ काम आवे सुई कहा करे तलवार!

पूर्वज, पितृ और भूत-प्रेत हैं कौन ?

सबसे पहले तो ठीक तरह से यह जान लेना उपयुक्त रहेगा कि ये पितृ, पूर्वज या भूत प्रेत हैं कौन? 

उससे भी पहले यह भी ध्यान में रखना आवश्यक है कि सनातन में पिता या पितामह का जब भी जहां भी जैसा भी उल्लेख हो उसमें उनकी संगत अर्धांगिनियां समाहित हैं उन्हें अलग से उल्लेखित नहीं किया गया है! क्योंकि पिता या पितामह का पिता या पितामह होना उनकी अर्धांगिनी के बिना तो संभव हो ही नहीं सकता था ना? और किसी को अर्धांगिनी बनाना तभी संभव है जब पुरुष अपने अस्तित्व को स्वयं में से केवल आधा और शेष आधा अपनी संगिनी में देखें!  साथ ही सनातन में स्त्री की प्रकृति के अनुरूप उसके पृथक एकल अस्तित्व को स्वीकारा ही नहीं गया है! अत: पिता के साथ माँ और उनके पिता के साथ उनकी माँ स्वमेव ही समाहित हैं इसीलिए माँओं को अलग से उल्लेखित नहीं किया गया है! 

पितर, पितृ, पूर्वज या भूत-प्रेत, प्रेरक जैसे सभी शब्दों के एक ही अर्थ है! आपके पिता, पिता के पिता, और इसी तरह उनके भी पिता…  जिन्हें पितामह भी कहा जाता है…  यानी आपके पिता के पहले वाली पीढ़ियों में जितने भी ऊपर तक जायें वे सभी जन्मदाता या उनके समकक्ष वे पितामह जो अविवाहित या नि:संतान रहते हुए ही दिवंगत हो गये!

वैसे तो पूर्वज शब्द के शाब्दिक अर्थ से ही आपके कुल में आपसे पूर्व-जन्म ले चुके वे लोग हैं जो अभी जीवित भी हो सकते हैं और पिछली किसी पीढ़ी में आपके कुल में जन्मकर दिवंगत होने वाले भी! ये सभी आपके पूर्वज होंगे तथा सभी पूर्वज पिता समान सम्माननीय भी हैं..! पिता सिर्फ जीवन का दाता ही नहीं जीने का साधन भी होता है! परोक्ष ईश्वर के प्रत्यक्ष वरदहस्त स्वरूप है पिता! पिता की अनुपस्थिति में (माँ के अतिरिक्त) बड़ा भाई, चाचा/काका, ताऊ,  कभी कभी मामा, मौसा, फूफा भी पिता समान दायित्व निर्वहन कर पिता के नाम सुरक्षित सम्मान पाने के अधिकारी बन जाते हैं! इसी कारण सनातन में इन सभी को भी पिता के समकक्ष सम्मानित माना जाता है.

पितरों के लिए एक और शब्द प्रचलन में है वह है -प्रेत या भूत-प्रेत! मेरी दृष्टि में ये दोनों शब्द ,  भूतपूर्व-प्रेरक शब्दों से अपभ्रंशित / संक्षिप्त होकर भूत-प्रेत बने हैं! इसी तरह प्रेतयौनि भी प्रेरक यौनि का अपभ्रंश है !

क्योंकि आपके वे पूर्वज जो  जीवित रहते हुए आपके सर्वांगीण विकास के प्रति निरंतर चिंतन करते रहते थे वे सूक्ष्म रूप धरकर भी आपके हितचिंतन से तुरंत मुक्त नहीं हो पाते और देहहीन हो जाने से स्वयं कुछ भी करने में सक्षम रहते नहीं तब वे आपके विचार रूप में, आपके भीतर, प्रेरक विचार बन, आते जाते  रहते हैं ! किसी बहुत विशेष कारण के बिना कोई पूर्वज अपने निकटजनो़ं के कैसे भी अहित का कारण तो कभी नहीं हो सकता !

(मैंने अनेक कुसिद्ध भूतिया स्थानों के विषय में सुना, वहाँ गया, रहा  और उन स्थानों को आबाद भी कराया किंतु आज तक किसी अनिष्टकर भूत-प्रेत-चुड़ैल आदि से कभी सामना नहीं हुआ!  हालांकि हितग्राही मुझे चमत्कारी शक्तियों से संपन्न सिद्ध बाबा मानते हैं और मेरे भ्रमण के बाद उस स्थान को दोषमुक्त मान लेते हैं! जबकि मैं साहस और बेनाम ईश के ध्यान के अतिरिक्त किसी अन्य मंत्र तंत्र का कोई प्रयोग नहीं करता! )

पितृपक्ष में पुरखे मनाने की उचित रीति

अब लेख के सबसे महत्वपूर्ण अंग परिपाटी और निर्वहन पर भी चर्चा कर लेते हैं…

जिन सौभाग्यशाली लोगों को अपने माता पिता दादा दादी नाना नानी चाचा चाची बुआ फूफा मौसी मौसी मामा मामी भैया भाभी के साथ रहने और उनके प्रति कर्तव्य निर्वहन का अवसर मिलता है वे दैनंदिन जीवन में अपने इन पूर्वजों के प्रति, कुछ ना कुछ, कैसा ना कैसा असम्मानजनक व्यवहार भी, जाने या अनजाने में कर ही जाते हैं..!

अधिकतर छोटे अपनी ऐसी भूलों के लिए, अपने बड़ों से, मात्र क्षमा मांग कर, अपराध बोध से मुक्त हो जाते हैं! किंतु कई बार कई लोगों को ऐसी क्षमा मांगने का या तो अवसर ही नहीं मिलता या फिर साहस ही नहीं होता या भूल इतनी बड़ी कर बैठे होते हैं तो ऐसे लोग उन पूर्वजों के देहांत के उपरांत, उनके प्रति अपराध बोध से भर उठते हैं जिससे मुक्त होना सरल नहीं होता !

साथ ही उनके वे पूर्वज जो उन्हें क्षमादान दिए बिना ही स्वर्गारोहण कर गए हैं, वे ऐसे उद्दंड अपनों के प्रति, भारी मन के साथ, परलोक गमन कर जाते हैं.  तब ऐसे पूर्वज जो जीवित रहते अपने बच्चों और उनके बच्चों को दंडित या शापित नहीं कर पाते वे भी देह मुक्त होने के उपरांत अथवा देह त्याग के समय ही निर्मोही होकर, उन्हें श्राप देने में पीछे नहीं रहते!

अब जिन पितरों के लिए स्वयं देव भी पूरा एक पखवाड़ा सुरक्षित रखवाते हों उनके श्राप और आशीर्वाद दोनों ही देवों के आशीष और श्राप के समतुल्य ही होते हैं!

इसीलिए सनातन जीवन यापन की पद्धति में अपने समस्त पूर्वजों, अर्थात, अपने से बड़ों के प्रति, अखंड सम्मान, हर परिस्थिति में, अक्षुण्ण रखने का निर्देश है! कुलीन सनातन घरानों में इस आदर्श स्थिति का निर्वहन लगभग पूरी तरह किया भी जाता है या करने का प्रयास तो किया ही जाता है.. !

अपने पूर्वजों के प्रति हुई संज्ञानी या अज्ञानी, ज्ञात या अज्ञात,  भूलों के लिए उनसे जीवित रहते क्षमादान ना पा सकने वालों को पितृपक्ष वह अवसर है जिसमें वे मृत-पूर्वजों के प्रति अपनी और अपने माता-पिता, पितामहों आदि कुलोद्भवों की भी पूर्वजों के प्रति हुई भूलों के लिए क्षमा मांगकर अपराध बोध के भार से मुक्त हो सकें और आप अपने प्रगतिपथ पर उचित गति से आगे बढ़ सकें!

साथ ही प्रतिवर्ष आने वाला पितृपक्ष यह भान भी कराता है… याद दिलाता है कि… आपको; आपके बड़ों के प्रति आपके जो दायित्व हैं उनमें भूल या चूक आपकी प्रगति की अवरोधक भी हो सकती है ! इसीलिए अपने बड़ों के प्रति यथासंभव विनम्र विनीत और प्रार्थीभाव बनाये रखने का हमेशा ध्यान रखें!

traffictail
Author: traffictail

Leave a Comment





यह भी पढ़ें