आज की नारी! कितनी बेचारी?
(एक नारीवादी लेख पर लिखित प्रतिक्रियात्मक पेरोडी)
“ऐसे घर” जिनमें शिक्षित या अशिक्षित, घरेलू या कार्यरत स्त्रियां गृहप्रबंधक हों, और उन घरों में स्त्रियों के साथ साथ पुरुषों की आवश्यकताओं का भी समानता से ध्यान रखा जाता हो.. जहाँ पुरुषों का भी आदर हो.. जिस घर की स्त्रियों की मानसिकता गंगू बाई कमाठीपुरा वाली की तरह घर के पुरुषों को शत्रु, मूर्ख या कठपुतली समझने वाली ना हो…!
केवल वे गिने-चुने घर ही
“परिवार” या “घर”
कहलाने योग्य बचे हैं!
बड़े ही दुख का विषय है
कि अब ऐसे “वास्तविक घर”
बड़े विरले हो गये हैं !
और दिनोंदिन घटते ही जा रहे हैं!
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आज की नारी;
पुरुषों की पारम्परिक सदाशयता और असंतुलित लेंगिक कानूनों की आड़ में, इतनी सशक्त हो चुकी है कि अनेक अतिउत्साही स्त्रियां तो अपनी प्राकृतिक और वैधानिक शक्तियों के सम्मिश्रण का भरपूर दुरुपयोग करते हुए महाअत्याचारी बन बैठी हैं!
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आज की नारी को देवी रुक्मणि, पार्वती, सीता, अनसुईया, अन्नपूर्णा जैसे पौराणिक चरित्रों में आदर्श नहीं दिखते.. वो उन जैसी कतई नहीं बनना चाहती!
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आज की उत्साही नारियों की आदर्श तो सूर्पनखा, मेनका, रम्भा, उर्वशी से शुरू होकर मोनिका लेविंस्की, सनी लियोनी, मंजरी बघेल, श्वेता जैन आदि बनी हुई हैं! आज हर तीसरे घर में गंगू बाई कमाठीपुरा वाली जैसी, घरवालियां दिखाई देने लगी हैं!
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अनेक घर कमाठीपुरा, दालमण्डी, बहू बाजार जैसे व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के जैसे कुत्सित वातावरण के पोषक बन चुके हैं..! जहाँ प्रतिदिन पुरुषों से भावनात्मक बलात्कार किया जाकर उनकी पाई-पाई लूट ली जाती है! जहाँ मानवता की पल-पल हत्या की जाती है और जहाँ पुरुषों का अपमान ही सबसे गौरवमयी कृत्य समझा जाता है! जहां पुरुषों को भोजन के निवालों के साथ अक्सर भरपूर अपमान और कभी कभी विष भी परोसा जाता है।
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“आज के भारतीय समाज के आधे से घर होटल, सराय या व्यावसायिक प्रतिष्ठान बन चुके हैं!”
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यही आज का कड़वा सच है…
जैसे तैसे पचाने की कोशिश कीजिए..
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