प्रारब्ध!
अपने जीवन में पीछे की ओर जाइये•••
घटित को पूरी ईमानदारी से देखिये!
अपने सद्कर्म और असद्कर्म!
सद्भाव और दुर्भाव!
प्राप्तियाँ और लुप्तियाँ!
सहयोग और असहयोग!
आशीष और श्राप!
सराहना और कोसना!
सभी कुछ•••
जैसा जैसा बीज हम बोते हैं कुछ समय बाद वैसी- वैसी ही फसल आनी शुरु हो जाती है…
सत और असत में से जिस तरह के बीज की फसल की… जितने मन से… जितनी गहन… देखभाल की जाती है… वह फसल उतनी ही लहलहा कर आती हैं!
और
जिस फसल को जैसे वेमन के पानी से सींचो
वह उतनी ही दुर्बल होती है!
होनी ही थी… क्योंकि…
यही तो प्रकृति है !
और यही (स्वनिर्मित) प्रारब्ध!
-सत्यार्चन (26052018 फेसबुक पर)