सतयुग की ओर चल पड़ी है स्त्री…
आज के #नारी_सशक्तिकरण_संगठन और कार्यकर्ता आदि सभी पूरी तरह सही प्रतीत होते हैं!
और वे इसीलिए सही हैं कि नियति वृत्ताकार है…
यात्रा जहां से शुरू होती है कालांतर में समाप्त भी वहीं होगी.. यदि; यात्रा सीधी सरल रेखा में तथा एक ही दिशा में चलती रहे…!
अर्थात #कलयुग से चली यात्रा #सतयुग, #त्रेता, #द्वापर होते हुए कलयुग पर ही पहुंच जायेगी… और सतयुग से चली यात्रा भी त्रेता, द्वापर, कलयुग होते हुए एक दिन फिर सतयुग पर पहुंचेगी या फिर यूँ कहें कि युग परिवर्तनशील तथा विकास वादी तो है किन्तु विकास अपने बढ़ने के साथ साथ, विनाश की ओर भी गतिशील होता ही होता है!
इसे कुछ सरलतम उदाहरणों से समझा जा सकता है जैसे #यातायात_के_साधनों के विकास को ही ले लीजिए…! आरंभिक काल में जब मानव केवल पैदल यात्रा करता था तब #रास्ता_चलते_दुर्घटना_की_संभावना सबसे कम (केवल पैर फिसलने से खाई में गिरने जैसी, हिंसक पशुओं के आक्रमण से हताहत होने जैसी, पहाड़ खिसकने से दबकर मरने जैसी, रेत या बर्फ़ के तूफान में दबने जैसी), अति न्यून संभावनायें ही हुआ करती थीं और तब का #मानव_अपने_पूरे_जीवन काल में अधिकतम, (आज के) एक जिले जितने दायरे के भीतर ही, #भ्रमण_में_सक्षम, हो पाता था! फिर #मनुष्य_पशुओं_की_सवारी करने लगा, फिर #पहिये_का_आविष्कार हुआ तो, #औसत_मानव_का #भ्रमण_क्षेत्र थोड़ा और बढ़ा और थोड़ी और #दुर्घटनायें_भी_बढ़ीं… फिर पानी, हवा और #रेलपथ पर यात्रा विकसित होने से आज का मानव सप्ताह भर के समय में ही 2-3 विश्व भ्रमण करने में सक्षम हो चुका है! #यातायात_के_विकसित_साधनों में #सुरक्षा_मानक भी अब सबसे कड़े और विकसित तो हुए हैं किंतु फिर भी भारत सहित विश्व भर में प्रतिवर्ष, #सबसे _अधिक_लोग, #यातायात_दुर्घटनाओं में ही मरते हैं!
इसी तरह रक्षा या सुरक्षा के #साधनों_के_विकास के साथ साथ विकसित शस्त्रास्त्रों से #हमलों_के_बढ़ते_खतरे से भी #विकास_और_विनाश शब्दों का समउच्चारित होने के साथ समानुपातिक होना भी #स्पष्ट_होता_है!
#कुछ_ऐसा_ही_दृश्य स्त्री की दशा , दुर्दशा और सुधार के उपायों के मामले में भी होते आ रहा है! अब तक, माना तो यही जाता है कि, जहां से चले थे वो बदतर था और विकास ने #स्त्री_को_सशक्त_तथा_बेहतर बना दिया! किन्तु आज जब विश्व #विकास_के_चरम पर है तब संसार फिर वहीं #पहुंचने को उन्मुख दिख रहा है जहाँ से वो कभी चला था…
मानव सभ्यता का #वैज्ञानिक दर्शन और विभिन्न संस्कृतियों का #पौराणिक_वर्णन एक दूसरे के काफी सापेक्ष लगते हैं …
उपलब्ध और #पौराणिक_इतिहास को मिलाकर #तटस्थ_दृष्टि_से देखें तो #प्रारंभिक काल में, #जब_देवता_पृथ्वी_पर ही रहते थे तब सभी #स्त्रियां_बहुत_सम्माननीय थीं.. (सम-माननीय)!
भले ही वो कोई भी हों या वो (देहव्यापार सहित) किसी भी व्यवसाय से संबद्ध रही हों!
जैसे रम्भा, मेनका, उर्वशी आदि गणिकाओं का नाम पौराणिक कथाओं में ससम्मान ही उद्धृत तथा वर्णित है!
अर्थात उनके अविवाहित या निरंतर नवविवाहित होते रहने से उनके सम्मान में कोई अंतर नहीं पड़ता था… जगत के राजा देवराज इन्द्र तक की वे कृपा पात्र थीं! महाराज इन्द्र भी उन्हें देवी मेनका या देवी उर्वशी सम्बोधित किया करते थे! उनके चयनित व्यवसाय से उनके अन्य स्त्रियों सम-मान में नहीं के बराबर या बहुत जरा सा… या नगण्य सा ही अंतर था..! जिस जरा से अंतर के बदले उन्हें बहुमूल्य आत्मनिर्भरता का गौरवशाली अधिकार प्राप्त हुआ करता था…! वही अधिकार जिसे पाने के लिए आज की स्त्रियां प्राणपण से जुटी हैं और जिसे पाना स्त्रियों की पहली वरीयता है..! वे अधिकार पौराणिक या आरंभिक कालीन मेनका जैसी स्त्रियों को सहज ही प्राप्त थे! वे इतनी आत्मनिर्भर थीं कि बच्चे पैदा करने या ना करने का निर्णय वे स्वयं ही लेती थीं! वे किसी एक पुरुष की 24 घंटे की चाकरी से पूरी तरह मुक्त थीं…! वे भोरकालिक जागरण के नियम से भी मुक्त की जाकर प्रातः कालीन शयन की अधिकारिणी मानी जाती थीं…! अधिकांश गणिकायें मात्र रात्रिकालीन कुछ घंटों की गायन , नर्तन, सहशयन की सेवा के बदले बड़े-बड़े मूल्यों को पाने वाली हुआ करती थीं…!
तब भी; कुछ मूर्ख स्त्रियां, उन रोल मॉडल्स के सुख वैभव को देखकर और ऐसी ज्वलंत स्त्री स्वातंत्र्यवादियों को प्रत्यक्ष पाकर भी, उन्हें अनदेखा कर, सम्मान के नगण्य से अंतर को पाटने के लिए पूर्ण आत्मनिर्भरता की जगह परनियंत्रित होने का चयन कर बैठीं! उनने आत्मनिर्भरता के स्थान पर किसी एक समकक्ष पुरुष (देवता या दानव) के प्रतिआसक्त हो, उसकी (पत्नि की तरह) दिन रात चाकरी में लगे रहने को वरीयता दी…! अजीब बात है ना?
संभवतः स्त्री जाति की इस उल्टी वरीयता से ही स्त्री जाति के पतन के प्रारंभिक काल का प्रादुर्भाव हो गया था…!
आश्चर्यजनक रूप से अनेक स्त्रियों ने इस ‘कमतर’ को चुनने की भूल की ! मुझे तो यह भूल ही लगती है शायद आप उनके उस चयन को श्रेष्ठ सिद्ध करना चाहें किन्तु पराधीनता का चयन तो कैसे भी समझदारी नहीं कहा जा सकता ना? और वह भी अच्छी भली आत्मनिर्भर रोलमॉडल्स के सजीव सामने होते हुए भी…? निरी मूर्खता नहीं तो क्या था?
कुछ ही दसक या शताब्दियों के बीतने के साथ यह #’उल्टीचाल’ एक #भेड़चाल_या_फेशन के रूप में #अधिकांश_स्त्रियों_द्वारा #प्रतिस्पर्धा तथा #प्रतिष्ठा_का_प्रश्न बना दिया गया! दूसरी स्त्रियों से हर स्त्री; किसी एक की अधिक… और अधिक समर्पित ‘दासी’ बनने की होड़ करने लगी… वे #दासत्व_को_ही_श्रेष्ठ मान वरीयता देने लगीं! तब #उन्मुक्त_उपलब्ध #सर्वसुलभ #स्त्रियों_का_अकाल पड़ने लगा…!
बीच के काल में तो सर्वसुलभ स्त्रियां इतनी #दुर्लभ_हो_गईं कि कई-कई बार #नगर_वधुएं #बलपूर्वक_बनाई_गईं!
बाद में किसी समय किसी #सिरफिरे_शासक ने नगर वधु प्रथा व सर्वसुलभ स्त्रियों वाले व्यवसाय दोनों को ही #प्रतिबंधित_कर स्त्रियों के पर कतर दिए!
तब से स्त्रियों के सामने ‘#सममान_सहित’ किसी एक पुरुष की #निरंतर_अनथक_सेवा ही एकमात्र विकल्प रह गया! अपेक्षाकृत न्यून सम्मान सहित आत्मनिर्भरता का विकल्प स्त्री जाति से #राजनीतिक_दांवपेच ने #स्थायी_रूप_से छीन लिया! (तब तक स्त्री के पास स्वयं के अंदर अन्य #स्तरीय_कौशल_विकास के साधन नहीं के बराबर… बहुत सीमित… या राजघरानों की तथा समकक्ष स्त्रियों तक ही तो सीमित थे!)
एक और परिदृश्य भी है जिसमें, भारत ही नहीं विश्व भर की, जनजातीय वस्तियों में, स्त्री और उसकी वरीयतायें आज भी समान रुप से महत्वपूर्ण हैं..! उन वस्तियों की स्त्रियां; तुलनात्मक रूप से, तथाकथित सभ्य समाज की स्त्रियों से, बहुत बेहतर स्थिति में हैं! वे जब चाहें; अपने #अनुपयुक्त साथी से मुक्त हो नये साथी का #चयन_कर_सकती_हैं..! हालाकि ना जाने क्यों ऐसे उदाहरण भी बहुतायत में ना होकर #केवल_अपवाद_स्वरूप ही दिखते हैं!
#तथाकथित_सभ्य_समाज में #सर्वसुलभ उन्मुक्त स्त्रियों पर प्रतिबंध के कुछ वर्षों बाद से ही विवाहित पुरुषों ने #घरेलू_स्त्रियों_का शोषण करना शुरु कर दिया! आजीवन #सुविधापूर्ण सह-वास के बदले स्त्री पर अनेक #जिम्मेदारियां_लादी_जाने लगीं ! विवाह के बदले स्त्री (पक्ष) से #दहेज_के_बहाने अनाप शनाप धन मांगा जाने लगा! विवाह योग्य या विवाहिता के #स्वयं_ही_सम्मानित_व्यवसाय में होने के बाद भी #स्त्री_को_हेय ही मनवाया जाने लगा… इसके बाद पीड़ित स्त्रियों के समूह फिर संघ या संगठन बने…
और अब स्त्रीजाति आदिकालीन #आत्मनिर्भरता की ओर ₹पुनरोन्मुख दिखने लगी है !
#वह_दिन_दूर_नहीं जब हम सब स्त्री पुरुष आदिकालीन #पशुवत_जीवनचर्या को अपना चुके होंगे…! कोई स्त्री किसी की दासी की तरह सेवा नहीं कर रही होगी … जिसे जिस समय जो पुरुष भायेगा वो उस समय वह उसका वरण कर रही होगी और जब तक उसकी मर्जी होगी तब तक ही उससे निर्वहन करेगी…! अति निकट भविष्य में आगत यही समय वह संधिकाल होगा; जो कलयुग के समापन और सतयुग के आगमन का मौन उद्घोष कर रहा होगा!
तब उसके बाद फिर से कुछ मूर्ख स्त्रियां…
और इसी तरह नियति का वर्तुलाकार चक्र सतयुग से सतयुग या कलयुग से कलयुग की ओर निरंतर चलता रहेगा..!
2 thoughts on “सतयुग की ओर चल पड़ी है स्त्री…”
Very nice blog ????
Thanks a lot ????!