#प्राकृतिक, #आयुर्वेदिक, #यूनानी, #होम्योपैथिक और #एलोपैथिक सभी चिकित्सा व निदान पद्धतियां एक दूसरे से थोड़ी या बहुत भिन्न और विशिष्ट हैं…!
#एलोपैथिक_चिकित्सा_पद्धति में #रोग_की_चिकित्सा से पहले रोग की पहचान के लिए रोग प्रभावित अंगों के #एक्सरे, #सीटी_स्कैन आदि देखकर, या शरीर से प्राप्त अवयवों का #भौतिक एवं #रासायनिक_विश्लेषण_कर #सबसे_सटीक_तरीके से #रोग_की_पहचान की जाती है फिर उस #रोग_के_निदान के लिए जिस रसायन की कमी जिम्मेदार हो उस रसायन को #औषधि_के_रूप_में शरीर के अंदर पहुंचाया जाता है…! अच्छे चिकित्सक रोगकारी रसायन की कमी के कारणों तक जाकर सम्पूर्ण निदान का प्रयास करते हैं . किंतु सामान्य चिकित्सक या जनसाधारण स्वयं ही ही #गूगल_बाबा_से_पूछकर उस रसायन की कमी को दूर करने के लिये उसी रसायन को औषधि के रूप में प्रस्तावित करते हैं जिससे अन्य अंगों या अवयवों के लिए वही रसायन घातक या नुकसानदायक भी सिद्ध हो सकता है! इसे ही। मेडिसिन के #साइड_इफेक्ट्स के नाम से जाना जाता है और एलोपैथिक चिकित्सा जो सबसे सटीक निदान तो तो है किन्तु #साइड_इफेक्ट्स के ही कारण एलोपेथी सबसे अधिक बदनाम भी है!
है!
होम्योपैथिक पद्धति ठीक #टीकाकरण पद्धति के अनुसार काम करती है.. ! इसमें रोगी के बताये लक्षणों का विस्तृत, सूक्ष्म व गहन विश्लेषण कर #रोग_का_निर्धारण किया जाता है फिर उस रोग के प्रति रोगी के शरीर में रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने उसी रोग के रोगाणुओं को बढ़ाने वाली तथा मारने वाली एक से अधिक दवायें, एक से अधिक बार एक निश्चित क्रम में, निश्चित अंतराल पर दी जाती हैं… ! ताकि रोगी में प्राकृतिक रोगप्रतिरोधक क्षमता बढ़ाकर निदान किया जा सके। इसीलिए इससे अधिकांशत: लंबे समय तक व स्थाई उपचार होता है। होम्योपैथिक चिकित्सा में कड़े परहेज और पथ्य का ध्यान रखना जरूरी है जिसे वर्तमान के भागदौड़ वाले जीवन में अपनाने से लोग डरते हैं! फिर भी सीजनल सामान्य बीमारियों के लिए होम्योपैथिक चिकित्सा उत्तम माने जाने योग्य है!
यूनानी और आयुर्वेदिक चिकित्सा एक दूसरे से बहुत कुछ मिलती जुलती हैं इनमें रोग की पहचान रोगी के बताये लक्षणों और रोगी के नाड़ी परीक्षण को मिलाकर किया जाता है ! रोग का निर्धारण हो जाने पर उन प्राकृतिक उत्पादों के भौतिक मिश्रण को औषधि के रूप में दिया जाता है जिसकी कमी से वह रोग हुआ हो…! (एलोपैथिक में इन्हीं उत्पादों से रासायनिक विधि से उपयुक्त रसायनों को ही निष्कर्षित कर औषधि के रूप में दिया जाता है)! आयुर्वेदिक और यूनानी चिकित्सा में भी उपचार के उपप्रभाव (साइड इफेक्ट्स) तो होते हैं किन्तु संभवतः प्राकृतिक स्वरूप में दिये जाने से इनके उपप्रभाव बहुत गंभीर नहीं होते! इन दोनों चिकित्साओं की सबसे बड़ी कमी यह है कि केवल अच्छे नाड़ी वैद्य और हकीम ही रोग की सही पहचान कर पाते हैं ! दूसरे इन पद्धतियों में भी परहेज़ और पथ्य का पालन कड़ाई से करना जरूरी होता है!
अंत में बचती है प्राकृतिक चिकित्सा ! यह चिकित्सा कम और स्वास्थसंरक्षक ज्यादह है! जनसाधारण की उचित प्राकृतिक जीवनचर्या यानी खानपान, रहनसहन, आचार विचार, शयन जागरण उसे स्वस्थ ही बनाये रखते हैं किन्तु फिर भी यदि किसी कारण से कोई यदि रोग घेर ही ले तो विभिन्न चिकित्साओं में वर्णित पथ्य और परहेज का ही पालन करके पुनः पूर्ण स्वस्थ हुआ जा सकता है! वर्तमान के डाइटीशियन, फिजियोथैरेपिस्ट, योगशिक्षक आदि भी एक तरह से प्राकृतिक चिकित्सक ही हैं जो आपको स्वस्थ कर सकते हैं और बनाये भी रख सकते हैं!
प्राकृतिक स्वास्थ्य संरक्षण का मूलमंत्र यह है कि सबकी शारीरिक एवं मानसिक संरचना अलग अलग है और जिसको भी प्राकृतिक रूप से उपलब्ध जिस फल, सब्जी, मेवे आदि को खाने की इच्छा होती हो उसे वही खाना चाहिए जिससे अरुचि हो उसे नहीं खाना ही श्रेयस्कर है! वैसे सभी को सभी मौसमों के सभी स्थानीय उपलब्ध एवं प्रचलित भोजन करना चाहिए! जो लोग संतुलित मात्रा में सभी तरह के मौसमी भोजन करते हैं वे सबसे अधिक स्वस्थ होते हैं!
चिकित्सा पद्धति कोई भी खराब नहीं है हाँ सबकी अपनी अपनी सीमायें अवश्य हैं!