छलना हो गई तुम
गोपियों के कृष्ण सी,
छलना बन गई हो ….
आवाज देकर फिर,
कहाँ छुप गई हो …
जानता हूँ है निरर्थक,
तुम्हें यह भी बताना,
मेरे लिए जीवंत गुजरा,
हर पल सुहाना,
बचपने की अठखेलियाँ,
अब तो करना छोड़ दो ?
छुपकर ना बैठो घुटन में,
भले मुझसे मुंह मोड़ लो !
स्वयं, स्वयं के प्रश्न पर,
स्वशोधित निष्कर्ष क्यों ?
जौहरी तुम,
तो मुझ पारस पर,
पारद का संदेह क्यों !
-सत्यार्चन