तुम ही तुम•••
(चित्र गूगल से …. साभार)
इधर भी हो तुम
उधर भी तुम!
जिधर देखता हूँ
उधर तुम ही तुम!
पढ़ता हूँ जिनको
उन किताबों में हो तुम!
उलझते-सुलझते
सबालों में तुम!
सँवरते बिखरते ख्यालों
में हो तुम
अनुत्तरित सभी प्रश्नों के
जबाबों में तुम
हो नींदों में तुम
तो हो रातों में तुम
सोते-जागते देखे हुए
ख्बाबों में तुम
मेरी बहकी बहकी सी
बातों में तुम
मिलन के दिनों के
हिसाबों में तुम
भोर का होता हुआ
उजास हो तुम
प्रात पांव फैलाता
प्रकाश भी तुम!
आसपास होने का
कयास हो तुम
अनजाना अनदेखा
मधु-मास तुम!
तुम्हीं हो••• तुम्हीं हो
बस तुम हो••• तुम!
मेरे जीने के मकसद
मेरी मंजिल हो तुम!
क्या हुआ अगरचे
मेरे कातिल हो तुम!
(25 साल पहले जला दी गई डायरी से…. जेहन में तैरते हुए चंद अलफ़ाज…. – सत्यार्चन)