पर उपदेश…
“पर उपदेश कुशल बहुतेरे ….
जे आचरहिं ते नर ना घनेरे
– (गोस्वामी तुलसीदास जी)” ने कहा है …
इस चौपाई में वर्णित में से केवल दो तीन
तथाकथित धर्मगुरु जेल जा सके हैं
शेष स्वच्छंद कार्यरत हैं…
उन्होंने धर्माडम्बर को ही विलासिता पूर्ण जीने का व्यवसाय बना रखा है…!
आम जन भी धर्माचरण से अधिक धर्माडम्बर,
और उनके पक्षधरों के पीछे चलने में विश्वास रखते हैं !
अधिकांश आमजन, वास्तविक धर्म से अपरिचित रह,
स्वयं धर्माडम्बर में स्वयं को नष्ट-भ्रषट करने में लगे हैं…
सभी धर्मों का एकरूप,
संक्षेप में धर्माचरण जनना चाहें तो बस इतना है कि
“कभी किसी प्राणी को
अपरिहार्य हुए बिना
शारीरिक या मानसिक
कोई भी कष्ट देने का कारण मत बनो ! “
यही सन्मार्ग है !
में लिखित शब्द अक्षरशः सत्य हैं!
मैं भी मानता हूँ कि सामाजिक जीवन में रहते हुए,
सन्मार्ग का अनुसरण बहुत कठिन है….
किन्तु क्या हम लोग केवल सरल मार्ग पर चलने को ही
जीवन की सफलता मान प्रसन्न हो सकते हैं?
मैंने कठिनाइयों से सामना कर सन्मार्ग पर बने रहने का दृढ़ निश्चय किया
थोड़े ही समय जूझने के बाद,
हर कठिन सहज होता गया!
अब कठिनतम के स्वागत को सदैव तत्पर हूँ !
–#सत्यार्चन