प्रश्न उठा सर्वथा आध्यात्मिक कौन..?
उत्तर आया – “मैं हूँ ना!” … और मैं वही हूँ जो तुम हो…! अध्यात्म!
जिसका आरंभ और अंत दोनों आत्मिक हों वो अध्यात्मिक है!
आदि+आत्म = अध्यात्म (आध्यात्म) ।
आध्यात्मिक – जो आत्मस्वरुप में स्थित हो!
किन्तु जो देह के महत्व को भी समझ सके वो आध्यात्मिक हैं!
क्योंकि आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व केवल भक्तिभाव और किंवदंतियों में ही आभासी स्वरूप में ही दर्शणीय है..
आत्मा और परमात्मा की सर्वाधिक स्वीकार्य व्याख्या द्वापर में की गई… युद्धोद्यत योद्धाओं से घिरे हुए कुरुक्षेत्र के युद्ध स्थल में खड़े हुए #श्रीकृष्ण द्वारा ..
जन्म मृत्यु के देव महादेव शिवशंभु.. पालनहार श्रीविष्णु… और सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी… समस्त देवियां… तथागत बुद्ध.. भगवन् महावीर… स्वामी दयानंद जी… जीजस क्राइस्ट… पैगंबर मोहम्मद साहब…
और भी अनेक प्रभुसम देहधारियों के ही नाम हैं ना? तो क्या परमेश्वर इनसे भिन्न है…?
क्योंकि मूलतः तो वो निराकार है !
तो फिर ये जो नाम ऊपर लिखे गए ये कौन हैं?
हर किसी ने इन्हें भगवान कैसे मान लिया?
संभवतः इसलिए कि ये समस्त नाम उनके हैं जिनने अपनी आत्मा अर्थात चेतना को… इतना जागृत कर लिया था कि ये सभी चेतन्य स्वरूप में उपस्थित देहधारी थे !
जो जितना चेतन्य वो उतना ईश्वरीय! मैं या तुम या कोई भी … कोई क्षणिक तो कोई दीर्घकालिक.. कोई आजीवन… जैसे वे नाम जो ऊपर लिखे हैं और वैसे ही अनेक नाम हैं जो लगभग आजीवन चेतन्य स्वरूप में ही रहे वे ईश्वरीय माने गए! अब केवल यह जानना है कि चेतना, चेतन्यता और ईश्वर क्या है ..(निरंतर)