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प्रेम – 5

प्रेम – 5

हाँ-हाँ
यही
बस यही चाहिये था ….
यही प्रेम !
जितना हो सके  विस्तीर्ण करो … !
करते रहो !
मिटा दो.सारी शत्रुताओं को
समूचे विश्व से… !


बाँटो … और बाँटो !!
बाँटते रहो प्रेम…
प्रेम … प्रेम.. प्रेम….
सौहार्द… समर्पण … सहनशीलता …. क्षमाभाव ….
अनुपम कोष हैं…

जितना  खर्चो
उतना बढ़ने वाले… 
आओ मिटा दें विश्व से
घृणा … शत्रुताएं…
घटाकर बढ़ती दूरियाँ…. !
आओ एक पुनीत यज्ञ करें …
भाव यज्ञ !
शुभ का …
शुभ हेतु..
शुभमस्तु!

– सद्गुरु ‘सत्यार्चन’

traffictail
Author: traffictail

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