आज के भारत का श्रेय किसे और दोषी कौन

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आज के भारत का श्रेय किसे और दोषी कौनhttps://satdarshan.in/2022/05/03/%e0%a4%86%e0%a4%9c-%e0%a4%95%e0%a5%87-%e0%a4%ad%e0%a4%be%e0%a4%b0%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a4%be-%e0%a4%b6%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%87%e0%a4%af-%e0%a4%95%e0%a4%bf%e0%a4%b8%e0%a5%87-%e0%a4%94%e0%a4%b0/

#बर्लिन उद्बोधन को मीडिया ने पंजे पर तंज की प्रमुखता के साथ उछाला है..

तो आईये..  एक दृष्टि डाली जाये ..
विगत वाले भारत पर भी…
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वो स्वीकार्यता में आगे थे ये अस्वीकार्यता के प्रतीक हैं…!
जब देश आजा़द हुआ था तो 30% देश भूखा सोता था…
खुद का पेट भरने लायक भी ना था…
तब लालबहादुर शास्त्री जी की प्रेरणा से देश ने अपनी रोटी लायक अनाज खुद उगाने की दिशा में 1959 से  कदम बढ़ाये…

और तब 1971 तक देश खाद्यान्न में आत्मनिर्भर हुआ….
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तन ढँकने के लिए भी देश दूसरों का मोहताज था…
भारत का मध्यवर्ग भी एक पोषाक को दस जगह से फटते सिलते 2 जोड़ी कपड़ों में ही जीवन निकाल देता था…!
गरीब की धोती तो फटी की फटी ही रहती थी..
सिलने की सुई भी विदेशों से आती थी.. 

गाँधीजी ने देश को अपना तन ढँकने लायक कपड़ा खुद बनाने की प्रेरणा दी…

तब कहीं भारतीय ठीक से तन ढँकना शुरु कर पाये..
गाँधीजी ने सशक्त हिन्दुत्व की दिशा में सबसे बड़ा योगदान दिया…

सबल हिन्दुत्व के सबसे बड़े शत्रु

‘ऊँचनीच’, की समाप्ति के लिये गाँधीजी ने ना केवल वक्तव्य ही दिये …बल्कि गाँधीजी बाबा साहब के पीछे सशक्त आश्रय वाली दीवार बनकर खड़े रहे.. उनने स्वयं भी दलितों के साथ मिलना, बैठना, खानापीना ही किय … अपने निकटस्थ नेहरूजी से लेकर हर एक समर्थक की प्रेरणा भी बने … तब जाकर आज के भारत में जातिगत भेदभाव की विभीषिका समाप्ति के निकट पहुँच सकी है..!
भारत ने कई बड़े बाँधों और कारखानों की नींव आजा़द होते ही नेहरू जी के कार्यकाल में ही रखी …
तब कहीं संसाधनों की सीमितता और विदेशी कर्जों के बोझ से दबकर अपने शैशव में जीवन शुरु करने वाला भारत आज अपने यौवन में सभ्रांतों में गिना जाने लायक हुआ…
जिनने भारत का बीमार शैशव ना देखा.. ना जाना.. ना ही जो स्वीकारते वे हर विसंगति का दोष शैशव और बचपन की बुरी आदतों पर डाल सकते हैं किंतु जिनके पास सक्षम दृष्टि है वे देख पाते हैं कि तब जीवित रहना ही पहली प्राथमिकता थी…
भरपेट भोजन और  तन ढँकना प्राथमिकता थी… 
सांप्रदायिकता की दावानल में जलते हुए देश को उस आग से बचाना प्राथमिकता थी …
बाद में देश का नागरिक पैदल चलने, पीठ पर बोझा ढोने, और खेत के हल में खुद जुतने से आगे बढ़  साईकिलों, स्कूटरों , कारों, ट्रेक्टरों , ट्रकों को खरीदने लायक हुआ…
तब सड़कों के विकास की  आवश्यकता भी मेहसूस हुई… और शिक्षा की महत्ता भी…
तब उस उपयुक्त समय पर   ‘प्रधानमंत्री सड़क योजना’ और ‘स्कूल चलें हम’ जैसी योजनाएं माननीय अटल जी के काल में शुरु हुई जिनने प्रगति को गति देनी शुरू की …
1 रुपये में से  85 पैसे के भ्रष्टाचार को स्वीकारा गया…

और वही स्वीकार मील का पत्थर साबित हुआ …   क्योंकि स्वीकार हो तभी तो सुधार हो सकेगा!

और दोष मिटाने के साधन बनाने के लिये स्वीकारने वाले  राजीव गाँधी जी के काल में  ही ‘नंदन नीलकणि प्रोजेक्ट’ की स्थापना हुई…

जिससे सर्वहारा के विकास का ‘आधार’ निकलकर सामने आया…

जिसके कारण 85% छीनने वाला पंजा बेअसर हो सका.. 

उल्लेखनीय यह भी है कि उसी ‘आधार’ के स्वीकार की राह में तत्कालीन विपक्ष 20  साल तक रोड़ा ही बना रहा…

और उसी ‘आधार’ की उपयोगिता को वर्तमान  प्रधानमंत्री जी भी बखानते नहीं थकते…

और राजीव गाँधी जी के समय में ही वह कंप्यूटरीकरण लागू हुआ जिसे नया ‘डिजिटल इंडिया’ नाम देकर अब ठीक तरह प्रचारित प्रसारित और लागू किया जा रहा है… 

वर्तमान शासक  विकास के उन्हीं ‘आधारों’ को मात्र लागू और   प्रचारित कर के  यह समझाना चाह रहे हैं कि भारत 2014 से पहले योजना शून्य ही था? 
स्वीकार बड़ी बात है… योजनाओं का चयन भी… सामाजिक संरचना का संरक्षण भी…
मुझे दुख है कि वर्तमान बड़े बहुमत की सरकार जिसने प्रारंभिक व्यावसायिक सूझबूझ से ‘अटल ज्योति’ जैसी उत्कृष्ट योजनाओं का चयन किया ( एलईडी बल्बों पर सब्सिडी देकर बिजली की राष्ट्रीय खपत में बड़ी कमी लाकर बहुत बड़ी राजस्व हानि रोकी गई, साथ ही विद्युत उपलब्धता बढ़ाई जा सकी! ) … वही वर्तमान सरकार  आज सांप्रदायिक विष के प्रसार में नकारात्मक भूमिका में दिखती है ?   आश्चर्य है ! इतनी सक्षम सरकार  को आखिर नकारात्मकता अपनाने की विवशता क्यों हुई? हमारे परंपरागतगत अमित्र चीन से ही प्रेरणा  क्यों ली जा रही है ? मित्र रूस से भी तो प्रेरित हुआ जा सकता था ? सोवियत संघ की प्रगति का स्वर्णीम युग वह था जब वे धर्मविहीन हुए थे … बाद में धर्मनिरपेक्ष… !
हम धार्मिकता को इतनी प्रधानता दे रहे हैं कि आने वाले  कल में संसार में अलग थलग भी पड़ सकते हैं … हमें नहीं भूलना चाहिये लगभग कि 30% विश्व इस्लामिक और 35%  ईसाई है … भले ही सर्वाधिक 35 % हम सनातन होकर भी इतने बंटे हुए (हिन्दू, बौद्ध, सिख, जैन, लिंगायत आदि.. ल) ह़ैं जिनका एक होना असंभव जितना कठिन है… और हो भी जायें तो भी, वर्तमान जीवन की, उद्योगीकरण की या प्रगति की मूल आवश्यकता बन चुके, कच्चे तेल के लिये, हम भी, बाकी विश्व की ही तरह, बाहरी देशों पर आश्रित हैं.. और अभी दीर्घकाल तक निर्भर ही रहने वाले हैं…! 
आम जनता संदर्भों तक नहीं पहुँच सकती इसीलिए सत्य से दूर है…  और दीर्घकाल तक यथार्थ से दूर ही  रहेगी…  किंंतु जागृत भारतीयों को तो सब समझ आता है ना…! 
सबके योगदान और सबके प्रयास से ही भारत, विगत में भी विकास की राह पर चलते चलाते वहाँ तक पहुँचा है जहाँ से आज का भारत वैश्विक मंच पर उदीयमान सूर्य सा दमक रहा है..!
केवल 2014 से ही नहीं … !
मैंनै 2008 में विदेशयात्रा के दौरान अन्य विकसित देशों के नागरिकों का भारत के प्रति सम्मान पहली बार अनुभव किया था … और तब से ही भारत को और अधिक अच्छे से देखने समझने लगा  तभी से मैं मेरे भारतवर्ष पर गौरवान्वित अनुभव करता हूँ!
भारत का वर्तमान नेतृत्व भी विगत की ही तरह गुणदोष से युक्त है ..! ना अक्षम है ना ही सर्वोत्तम!  यदि सांप्रदायिकता की आग बुझ सके  और फिर कभी ना सुलगने का प्रबंध हो जाये… यदि जन्म या कुल आधारित असमानता  मिट जाये…  तो भारत 10 गुणा तेजी से विकसित हो सकता है..
2031 तक भारत ही वैश्विक सिरमौर हो सकता है…!
शुभकामनाएं मेरे भारत!
इस लेख सहित इस जैसे और लेख पढ़ने वेबसाइट पर आईयेगा!

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