न्यायिक प्रक्रिया मानवीय हो तो कितना अच्छा हो!
वयस्क स्त्री-पुरुषों के बीच बढ़ते विद्वेषपूर्ण प्रकरणों को ध्यान में रखते हुए आज के समय की आवश्यकता बन गई है कि अर्बाचीन न्यायिक प्रक्रिया की नये सिरे से समीक्षा की जाये!
कानून में मानवीय आवश्यकताओं, सीमाओं और क्षमताओं को ध्यान में रखकर परिवर्तन कर लिया जाना चाहिए!
और यह जल्द से जल्द संपन्न हो!
कम से कम पारिस्थितिक मानवीय दोष वाले प्रकरणों के न्याय के जिम्मेदार न्यायधीशों को तो अनिवार्यतः मानव व्यवहार विज्ञान का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए क्योंकि स्त्री-पुरुष संबंधों पर न्याय व्यवस्था देने वाला न्यायालय अक्सर यह भूल जाता है कि एक शताब्दी पहले बने इन कानूनों के निर्माण के समय मानवीय व्यवहार संबंधी मनोवैज्ञानिक अध्ययन लगभग नहीं ही हुए थे जबकि वर्तमान में उन्नत स्वरूप में उपलब्ध हैं! और नये सर्वे भी कराये जाने की सुविधा भी है!
साथ ही पिछली शताब्दी का सामाजिक परिदृश्य उतना विकृत नहीं था जितना अभी आज… इन दिनों है!
वर्तमान काल में आर्थिक आत्मनिर्भरता ही प्रमुखता बन गई है और प्रतिस्पर्धा कई गुणा बढ़ गई है जिससे युवक-युवतियों की विवाह की सामाजिक औसत आयु बहुत अधिक हो गई है जबकि इसके ठीक उलट उन्नत खान-पान रहन-सहन के कारण किशोरों में वयस्कता वैधानिक आयु से बहुत पहले ही आते दिख रही है (और केवल बालक ही जल्दी वयस्क नहीं हो रहे … बालिकाएं भी पहले की तुलना में बहुत जल्दी वयस्क होने लगी हैं!)
इस तरह अब स्त्री-पुरुष दोनों में ही आपसी मिलन (संसर्ग) की नैसर्गिक आवश्यकता का प्रतिशत तो पहले से बहुत बढ़ गया किन्तु (आर्थिक सुरक्षा पाने के लक्ष्यों की वरीयता के कारण) विवाह में देरी भी प्रचलित हो गई है जिससे नैसर्गिक आवश्यकता की पूर्ति के मार्ग संकीर्ण हो गये!
साथ ही येनकेनप्रकारेण आर्थिक प्राप्ति ही आज जीवन की सफलता मानी जाने लगी है..! इसीलिए बीते दशकों में व्यभिचार का प्रसार बहुत तेजी से हुआ, लिवइन प्रचलित भी हुआ और सामाजिक तथा वैधानिक मान्य भी! स्त्रियों में आर्थिक आत्मनिर्भरता की भूख ने नैतिकता की नई परिभाषाएं बनवा दीं…! अनेक स्त्रियों ने तो पुरुषों की ब्लैकमेलिंग को ही अपना व्यवसाय बना लिया है! (उत्तर प्रदेश की भंवरीबाई और मध्यप्रदेश के हनीट्रेप ने तो राज्य सरकारों को तक निर्देशित करना शुरू कर लिया था.. शायद याद होगा…) आज की स्त्रियों में पुरुषों की अपेक्षा बहुत कम ईमानदारी, कृतज्ञता, सहनशीलता, वचनबद्धता और नैतिकता देखी जा रही है! जबकि कानूनन हर उम्र की महिला को सच्चा, बच्चा और नादान मानने की भूल भी निरंतर है..!
क्या विधिवेत्ताओं की दृष्टि में स्त्री अपने हिताहित चिंतन में अयोग्य तथा इतनी मंदबुद्धि है कि उसे संसर्ग और बलात्कार का अंतर समझने में महीनों और कभी कभी सालों लग जाते हैं???
2012 के निर्भया जैसे काण्डों के बाद सोशल मीडिया पर उठी जनता की मांग के आधार पर जो नये कानून बनाये गये हैं उसमें ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी होना चाहिए कि तब तक सोशल मीडिया पर 95% अनुभवहीन और अतिउत्साही युवावर्ग ही सक्रिय था.. जोश में होश ना रखने वाला युवा! उनकी भावुकता के आधार पर विधिवेत्ताओं ने विधि व्यवस्थायें देकर विधि को हास्यास्पद नहीं बना दिया?
एक ओर तो विवाहितों को कामतुष्टि पाने के या नवीनता भरी उमंग मात्र के उद्देश्य से भी विवाहेत्तर संबंधों को वैधानिक बना दिया गया और दूसरी ओर हर उम्र की हर स्त्री को यौनिच्छारहित मान लिया गया! क्या ऐसा विधान स्त्री को एक ऐसी ‘वस्तु’ नहीं प्रमाणिक कर रहा जो विवेक शून्य (जड़) हो? जो पुरुष से भोग से भोग कर पुरुष को उपकृत करती है? ऐसी विकृत वैधानिक व्यवस्था की आड़ में ही सालों तक पसंदीदा साथी से संसर्ग सुख पाते रहने के बाद भी स्त्री विवाह के वचनभंग का दोष लगाकर पूरे देश में पुरुषों का शोषण वैधानिक संरक्षण में कर पा रही हैं! न्यायालय विधायीव्यवस्था के आगे ऐसी स्त्रियों को कानूनी संरक्षण देने विवश कर दिये गये हैं!
इसी प्रकरण को उदाहरण स्वरूप देखा जाये तो 2019 में संसर्गोद्यत आरोपी पुरुष ने आवेदक स्त्री को शादी का वचन दे उससे संसर्ग (अब परिवर्तित वैधानिक) बलात्कार) किया जो निरंतर चलते रहा… इसका उल्लेख भी इसी प्रकरण के विस्तार में इस समाचार में ही लिखित है.. किंतु संसर्गोद्यत वचन का निर्वहन आवश्यक नहीं है वाली व्यवस्था भी विगत वर्ष सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई है तब आरोपी को दी गई सजा वैधानिक कैसे हो गई?
अंत में पुन: वही महत्वपूर्ण प्रश्न कि क्या वैधानिक दृष्टि में स्त्री मात्र पुरुष के उपभोग के लिए ही निर्मित है? (तभी तो सालों के संसर्ग को निरंतर यौनशोषण मानने की वैधानिक व्यवस्था है!)
प्रबुद्धों से सादर समर्थन या प्रतिवाद आमंत्रित है! – “#सत्यार्चन”