सुख चाहिये? ये लीजिये…-5
मूल रूप से तो सुख और दुःख मन:स्थितियां हैं… मानें तो सुख ना मानें तो दुःख …
और सहजता से देखें तो जीवन की प्राप्तियों में ही सुख या दुःख निहित है …
इन प्राप्तियों में से भौतिक, लौकिक, सांसारिक प्राप्तियों यथा संस्कार, शिक्षा, घर, वस्त्र, वाहन आदि
खरीदकर या प्रयास से पाये जा सकने वाले संसाधन,
पर अधिकांशत: बच्चों के अतिरिक्त लगभग सभी वयस्कों का नियंत्रण होता है
किंतु अलौकिक प्राप्तियां जैसे जन्म का दिनांक, माह, वर्ष, माता-पिता, जाति,धर्म, कुल, अनुवांशिक संपत्ति / बीमारी आदि
किसी के भी अधिकार में नहीं होतीं ये जैसी हैं वैसी हैं … नियंत्रण से परे…
अच्छी या बुरी… किंतु हैं प्राप्तियाँ ही!
सामान्यतः: इन प्राप्तियों में ही सुख और दुःख देखा जाता है…
जबकि लगभग समान प्राप्तियों के स्वामियों में से अनेक बहुत सुखी पाये जाते हैं तो अनेक बहुत दुःखी …
फिर केवल प्राप्तियाँ या इनकी दूसरे से तुलना ही तो सुख नहीं हुआ ना…
फिर सुख कहाँ है?
वास्तव में प्राप्तियों के प्रति अपनाया गया सकारात्मक या नकारात्मक दृष्टिकोण ही सुख या दुःख का निर्धारण करता है…
यदि हम हमारी प्राप्तियों को दूसरों की तुलना में बहुत छोटा, कमतर या नगण्य मानते रहें तो
यह ना तो वास्तविक होगा ना इससे प्रसन्नता या सुख ही मिल सकता है….
साथ ही यदि हम हमारी प्राप्तियों को सर्वोपरि मान शेष सभी को अकिंचन मानें तब भी
अवास्तविक होगा तथा निश्चय ही हम अभिमानी हो जायेंगे
और अभिमानी का कोई अपना नहीं होता…
अपने नहीं होंगे तो भी तो सुख नहीं हो सकेगा…
इसीलिये सर्वोत्म वह है जो वास्तविक है… सत्य है… य़थार्थ है कि
मुझे जो भी मिला है, मिल रहा है या मिलेगा वह कइयों का तो सपना होगा, और कइयों को महत्वहीन भी किन्तु
मेरे लिये यह अति उपयोगी है…
मैं दुनियाँ के उन थोड़े से सौभाग्यशाली व्यक्तियों में से एक हूँ जिसे
यह सब सहज मिला है … इन मिले हुए साधनों / संसाधनों से मैं प्रयास कर, स्वयं को,
सर्वथा सक्षम, सुविधा संपन्न बनाने में समर्थ हो सकता/सकती हूँ!
याद रखिये कि जो वर्तमान के प्रति न्याय कर वर्तमान का सम्मान नहीं करता
उसे भविष्य से भी किसी दया की आस भी नहीं रखना चाहिये!
क्योंकि नियति सर्वथा न्यायी है…
इसीलिये क्रूर लगती है… है नहीं!