बैरी प्रिया!
“मेरे दुश्मन तू मेरी दोस्ती को तरसे….”
एक जाना माना पुराना गाना है…
शायद आप लोगों ने भी सुना हो…
पूरे गाने में नायक ने अपने वेवफा दोस्त / प्यार को जीभर कर कोसा है…
ठीक ही है भई… अगर कोई हर संभव कोशिश के बाद भी धोखा ही दे तो दुश्मनों वाली बद्दुआ तो बनती है!
मगर आजकल कुछ और भी अनहोनी सी होते भी बहुत दिखते हैं…
अनेक ऐसे जोड़े भी मिलते हैं जो संयोगवश विवाह बंधन में बंध साथ-साथ तो चल दिये लेकिन केवल लोकरीत निभाने…!
उनमें से 1 या दोनों ही साथ साथ रहते, खाते-पीते, जीते हुए भी साथी की हर खुशी छीन उसे हर यरह की पीड़ा भोगते देखना चाहते हैं!
बहुत अजीब है ना मगर मेरी दृष्टि में ऐसे एक से अधिक जोड़े आये हैं जिनमें से दोनों या दोनों में से एक इस गाने के बोल अपने साथी के प्रति सच होते देखने की उत्कट आकांक्षा रखते हैं!
और ऐसा केवल इसलिए है कि जो साथ है उसकी अच्छाई देखकर भी साधारण समझने और जो / जैसा साथ हो ना सका या जिसके/ जैसै के साथ होने की चाह थी या है उस की केवल अच्छाईयां ही दिख रही होती हैं!
सच तो यह है कि सम्पूर्ण कोई नहीं!
सभी गुण-दोष युक्त हैं!
दोषों पर आवरण का प्रयास भी सभी करते हैं… किंंतु सहचर / सहचरी के बीच का हर आवरण हट चुका होता है और स्वप्निल के दोषों की झलक तक नहीं मिलती!
अनेक स्वार्थी चाटुकारों से दुनियां भरी पड़ी है… ऐसे ‘केवल’ मितभाषी चाटुकारों को शत्रु समान समझा जाना चाहिए ! सभी को ऐसे चाटुकारों की पहचान करने बारंबार यथार्थ का दर्पण निहारते रहना चाहिए !