मनुजवर्ण
आज का शिक्षित मनुष्य भी, शिक्षित होकर विचारवान बनने की अपेक्षा, लिखित को (सर्वांगीण अध्ययन करने के स्थान पर) मात्र पढ़कर सबको पढ़ाने का भ्रम पाले बैठा है…! इस परिपाटी के प्रचलन के कारण आज के अधिकांश जन भ्रमित ही लगते हैं….!
आप आज वेद शास्त्रों को पढ़कर वर्ण और जातियों के या तो प्रबल समर्थक होकर उनके लागू किये जाने के पक्ष में मरने मारने उतारू हो जाते हैं …. या उनके विरोध में होकर उन पवित्र ग्रंथों को जला डालने पर!
कुछ तथ्य हैं जो सभी की दृष्टि में स्पष्ट परिलक्षित तो हैं पर उनको ठीक से समझने की आवश्यकता कम ही समझते हैं!
#जन्मसेनातोकोईशुद्रहैना _ब्राह्मणनाक्षत्रियना_वैश्य…!
जब से यह संसार है तभी से #प्रत्येकव्यक्तिब्राह्मणभीहैक्षत्रियभीवैश्यभीऔरशुद्र_भी!
ब्राम्हणत्व, वैश्यत्व, क्षत्रित्व या #शूद्रताएकतात्कालिकअवस्थामात्रहै। जब जो सुचिता से पूर्ण नहीं है तब वह शूद्र है…. यानी उस समय वह शूद्र है ….! हर #व्यक्तिजबजन्मताहै तब शूद्र ही होता है… आज के समय में प्रत्येक व्यक्ति सुबह जब वह शौच कर रहा होता है… जब स्वयं को स्वच्छ कर रहा होता है… या अपनी संतानों को स्वच्छ कर रहा होता है… या अपने स्थान को स्वच्छ कर रहा होता है #तबवहशूद्रहीतो_है..!
इसी तरह जिस समय शिशु जन्मता है वह स्वच्छ नहीं होता इसलिए शूद्र होता है और शिशु के जन्म के समय से लेकर एक निश्चित समय तक पूरे घर में सूतक मानी जाती है..। पूरा घर (या कम से कम जच्चा बच्चा का कमरा) शूद्र की ही तरह अस्पृश्य माना जाता है..।
शिशु के जन्म के कुछ दिनों उपरांत जब शिशु अस्वच्छता युक्त गर्भस्थ चिन्हों से मुक्त हो जाता है तथा उसकी जन्मदात्री माँ भी प्राकृतिक अस्वच्छता से मुक्त हो जाती है तब सूतक समाप्त हो जाता है! और यह व्यवस्था वैज्ञानिक दृष्टि से भी स्वास्थ्यकर है!
यही व्यवस्था जीवन में है! जिसमें अनुचित कुछ भी नहीं …. जिस समय कोई व्यक्ति सुचिता रहित या मलिन अवस्था में है…. वह स्पर्श योग्य नहीं है.. ना ही वह स्वयं ही भोजन आदि ग्रहण करने योग्य है… ना ही भोजन आदि को स्पर्श करने योग्य.. ना ही किसी भी अन्य स्वच्छ / पवित्र वस्तु, व्यक्ति या रसोई, मंदिर जैसे पवित्र स्थानों में प्रवेश के योग्य है..। यही तथ्य रजस्वला स्त्रियों पर भी लागू होता है… और रक्त रंजित या वीर्यपतित पुरुषों पर भी..। सभी अपशिष्ट व्यवहारिक, प्राकृतिक एवं वैज्ञानिक रूप से अस्वास्थ्यकर, अस्वच्छ हैं…! रक्त और वीर्य भी! यही प्राकृतिक है और यही वैज्ञानिक भी… प्रकृति के अनुरूप होना स्वास्थ्यकर है… हितकर है… प्रकृति के अनुसार होना वैज्ञानिक और विरुद्ध होना अहितकर!
सभ्यता के प्रारंभ से ही मनुष्य को; अपनी जीवन चर्या के लिए, अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए, अपने परिजनों के हित के लिए, साधन जुटाने के लिए, सुविधाएं देने के लिए किसी न किसी वृत्ति में रत होना ही होता है… और वह होता भी है!
जो जैसी वृत्ति में वह रत हो उसकी प्रवृत्ति भी वैसी ही होती है..। आज तो अनेक प्रकार की वृत्तीयां उपलब्ध भी है और प्रचलन में भी….। मिश्रित प्रवृत्तियाँ भी!
अपनी और अपनों की सुरक्षा के लिए हर कोई क्षत्रिय भी हो जाता है… ज्ञान का आदान प्रदान करते हुए ब्राह्मण भी… और जीवन संघर्ष में मकान, वाहन आदि के क्रय-विक्रय के समय वैश्य भी होते रहता है…!
किंतु जब ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य और शूद्रों का वर्गीकरण लिखा गया तब ना इतनी वृत्तियां थीं ना ही तब उन में पारंगत होने के लिये वैसी शिक्षा का ही जन्म हुआ था…!
प्रारंम्भ में नैसर्गिक बुद्धिमत्ता आधार पर मनुष्यों को चार तरह के मनुष्यों में बांटा गया… इसीलिए केवल चार ही वर्गीकरण मिलते हैं जो युगों तक बने रहे… ! बाद में जातियों का उद्भव हुआ और यह भी व्यक्ति की वृत्ति आधारित ही था…
अब चूंकि तब सार्वजनिक शिक्षा के साधन थे ही नहीं… तो व्यक्ति अपने बड़े बुजुर्गों से ही हुनर सीख सकता था..। इसीलिए जन्म लिये कुल के आधार पर जातियों का वर्गीकरण प्रचलित हुआ होगा और दूरस्थ अंचलों में अभी तक यही महत्वपूर्ण बना हुआ है…!
विश्व के सभी धर्म वास्तविक स्थानीय सामाजिक व्यवस्थाएं हैं… भारतीय उपमहाद्वीप में या जिस आर्यावर्त में हम रहते हैं वहाँ सनातन धर्म या हिंदू धर्म या आर्य सभ्यता प्रचलित थी! यही यहां की राजकीय व सामाजिक व्यवस्था थी!
अगर हम उन प्राचीन शास्त्रोक्त व्यवस्थाओं को आज के परिपेक्ष में देखेंगे तो हमें वे सभी अटपटी सी लगेंगी…! जबकि तात्कालिक समाज का आर्य संस्कृति का आधार रही हैं वे व्यवस्थायें!
अधिकांश शास्त्र तथा आदिग्रंथ वेद भी मुख्यत: राजघरानों को लक्षित कर उनके ही समक्ष वर्णित आदर्शों के संकलन हैं! शिक्षा पद्धति और पुरोहित कर्म, दोनों का ही, जन्म भी; राजपुरोहितों और राजघरानों की व्यस्तता – उपलब्धता के सामंजस्य पूर्ण समाधान के रूप में हुआ होगा! वैदिक काल से लेकर त्रेता और द्वापर युग तक शिक्षा राजघरानों के लिए ही आरक्षित वर्णित है!
अत्यंत महत्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय तथ्य है कि आरंभ में शिक्षा का स्वरूप तकनीकी शिक्षा ही था…! जैसे द्रोणाचार्य जी के गुरुकुल में राजपुरुषों को शस्त्रास्त्र संबंधी शिक्षा मिलती थी… ! और तत्कालीन संदीपनी आश्रम में नीत-अनीत आधारित शास्त्रीय शिक्षा…! त्रेता के वशिष्ट जी के गुरुकुल में मुख्यत: धनुर्विद्या और उसके मर्यादित प्रयोग की शिक्षा दी जाती थी!
एकलव्य की एकाग्रता, तपस्या और अनुशासित बलिदान ने जन सामान्य के लिए शिक्षा की उपलब्धता का पथ प्रशस्त किया और कालांतर में जनसाधारण को शिक्षा सुलभ हुई! जनसाधारण के योग्य सामान्य शिक्षा के पाठ और पद्धति विकसित हुईं! शिक्षा उपलब्ध होते ही व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ व्यवसाय के चयन की ओर उन्मुख हुआ और सर्वश्रेष्ठ के ना मिलने पर जो उपलब्ध हुआ वही करने विवश भी होता रहा! यही आज भी निरंतर है…!
किंतु हममें से अधिकांश शिक्षित होकर विचारवान की तरह आचरण करने के स्थान पर, विचारधाराओं के श्रोतों में, स्वयं को, सहर्ष प्रवाहित होने दे रहे हैं!
हम आज भी कालातीत तथा अस्तित्व च्युत वर्ण-व्यवस्था के पक्ष विपक्ष में व्यर्थ ही प्रलाप कर रहे हैं…! जिसका आधार कर्म था और जिसका कुलगत अनुकरण तब सर्वथा उचित होने को अनदेखा कर हम कुलविशेष में जन्मने के आधार पर उसको कुलगत योग्य-अयोग्य मानने की महाचूक किये जा रहे हैं!
हम भारत अपनी जिस कुलगत (जातिगत) कुशाग्रता / हुनरमंदी के बल पर तत्कालीन विश्व की सर्वाधिक उन्नत सभ्यता हुए वही व्यवस्थायें आज हमें वैश्विक पटल पर सबसे पीछे खड़े होने विवश करने वाली सिद्ध हो रही हैं…! शेष विश्व कुलगत सीमितता से मुक्त है …! शेष विश्व; प्रारंभ से अब तक, (हमारी प्राचीन वर्णव्यवस्था के समान ही), व्यक्ति के चयनित कर्म आधारित मनुष्य का अन्य कर्म में रत मनुष्य के समकक्ष सम्माननीय की अवधारणा पर चलता आ रहा है…! इसीलिए वे हमसे आगे निकलते चले गये… हम भटक गये… और अटक गये!
- ‘सत्यार्चन’