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नारी तू नारायणी..

समस्त सुबुद्ध मातृशक्तियो
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आपमें से अनेक
सक्षम उत्साही नारायणियों का
प्रबल पुरुष विद्रोह
अक्सर प्रस्फुटित होते दिखता रहता है..!
निश्चय ही आपके उद्गार आपके हृदय की  गहराइयों से निकलते लगते हैं..!
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किंतु क्षमा कीजिए…
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वे सतही दर्शन या श्रव्य अनुभव पर आधारित लगते हैं!
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वास्तविकता यह है कि समूचे संसार का कोई भी समाज उतना कलुषित है नहीं जितना माना जाता है… !
समाज में अमूमन लोग भले, भद्र और सभ्य हैं…
1000 में 2-3 के औसत में ही आतातायी पुरुष (और स्त्रियां भी) हैं!सब के सब या अधिकांश तो कतई नहीं!
ना पुरुष ना ही स्त्रियां!
केवल मुट्ठी लोगों के कारण पूरे संसार सागर को ही कलुषित मान लेना कहां तक उचित है?
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ऐसे तो हम जैसे वरिष्ठ पुरुषों को भी स्त्रियों से मिलता अनुभव बहुत अच्छा नहीं है..
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सप्ताह में लगभग 1 के औसत से,
हमारे जैसे वरिष्ठों के पास भी,
कुछ निम्नस्तरीय बालाओं (यानी  बलाओं) के नग्न डिजिटल दर्शन कराने के ऑफर आते ही रहते हैं.. इनके जाल में  कुछेक भले-भोले पुरुष फंसकर डिजिटल हनीट्रेप का शिकार भी होते हैं..!
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मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल की श्वेताओं के हनीट्रेप ने तो प्रदेश सरकार को ही जर्जर कर दिया था .. और इसकी सारे देश में चर्चा भी खूब हुई थी..!
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तो क्या हम पुरुष; समस्त स्त्रियों को उन जैसा ही मानें ?
क्या पीड़ित पुरुष भद्र स्त्रियों का भी सम्मान करना छोड़ दें?
ऐसे कटु अनुभव के धारक
हम पुरुष,
समस्त स्त्रियों को ही निकृष्ट मान,
स्त्री विरोधी मानसिकता के
#पोषक , #प्रसारक , #प्रचारक
बन जायें .. ? तो क्या यह उचित होगा?
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क्या हम पुरुष भी स्त्रियों की ही तरह उस कुत्सित घृणावाद के जाल में फँसकर, घृणित मानसिकता के अनुयायी बन जायें ?
जिस तरह स्त्रीवादी संगठन,
स्त्रियों को उकसाकर कर 
उन्हें सम्पूर्ण पुरुष जाति के विरुद्ध खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं?
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और हनीट्रेप भी कोई आज के युग की ही देन थोड़ी है…
महर्षि विश्वामित्र जी के साथ जो मेनका, रम्भा , उर्वशी ने किया क्या वह हनीट्रेप नहीं था?
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किंतु तब से अब तक के पुरुष प्रधान समाज के ही बहुसंख्यक पुरुषों ने उनकी जगह गाय, गीता, गंगा गायत्री, दुर्गा, काली, सरस्वती, लक्ष्मी को वरीयता दे, देवियों को भजना जारी रखा… आज भी अनेक पुरुष, अधिकांश स्त्रियों को देवीरूप में ही देखते मानते सम्मानित करते हैं! ग्रामीण सनातनी पुरुषों में तो यह इतने बहुतायत से प्रचलित है कि अधिकांश पुरुष समस्त मातृशक्तियों को ही देवी स्वरूप में देखते हैं और उनका वंदन करते हैं!
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फिर भी आज की अधिकांश शिक्षित सक्रिय स्त्रियां रावणों को ही भजती हैं!  अर्थात् अधिकांशतः स्त्रियां पुरुषों में रावण को ही देखती हैं..?
कान्हाँ,  श्रीराम, श्रवण, शिव, हनुमान को नहीं?
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स्त्रियां ; दुष्टों को ही क्यों भजती हैं?
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ध्यान देने योग्य तथ्य है कि दीर्घकालिक आशाएं चेष्टाओं को जन्म देकर उनमें से कुछेक को फलीभूत करती हैं इसी तरह गहरी आशंकाएं भय को जन्म देकर उन्हें फलीभूत करने वाली हो सकती हैं! ध्यान देने वाली बात यह है कि इस तथ्य को अध्यात्मिक और मनोवैज्ञानिक दोनों विधाओं में समर्थन प्राप्त है कि जो भजियेगा वही पाइयेगा!
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फिर क्यों?
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सोचिए.. विचारिये… और फिर जो चाहिए .. वही विस्तारिये!
धन्यवाद्!

traffictail
Author: traffictail

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