आग है लगी हुई…
मैं जब बड़ा हो रहा था तो कुछ महीनों तक गाँव में रहा… वहाँ की कई खट्टी मीठी यादें हैं … उन्हीं में से एक याद…
बाहर से किसी के दौड़ते हुये चिल्लाने की आवाज आई “आग लग गई …आग…”
बाबा ने सामने वालों से पूछा “कहां लगी है” सामने वालों ने बताया “हरकू के घर में”
बाबा ने ताऊ चाचा सबको निर्देश देने शुरु किये…
“नन्हें, सँझले, बड्डे जल्दी सै मवेशियों के गिरमा ढीलों और गघरी, बाल्टी, कसैड़ी और रस्सी लै के दौड़ौ हम भी चल रये हैं”
(रस्सी से बाँधे गये जानवरोंं को खोल दो और बाल्टी, गघरी आदि जो भी बर्तन पानी से भरा दिखे उठाकर दौड़ जाओ… साथ में रस्सी भी ले जाओ)
सामने वाले से मिला उत्तर चाचा, ताऊ ने भी सुन लिया था इसीलिये बाबा के आदेश को सुनने से पहले ही तीनों मिलकर जानवरों को खोल चुके थे… और घिनौची (पानी से भरे बर्तनों को रखने वाला छोटा कमरा) से जो बर्तन हाथ आया उठाकर बाहर जाते हुए ताऊ जी ने बाबा को बोला “घरै भी तौ कोऊ रुकै…आप घर पैई ठहरौ….” नन्हे चाचा ने गघरी के साथ-साथ रस्सी को कंधे पर पहना हुआ सा टांग लिया था … बाबा को रुकने का बोलते हुए वे तीनों दौड़ते हुए निकल गये…
मैं गाँव में नया था … मैंने दरवाजे तक जाकर लम्बे चौड़े आंगन के बीच में खड़े होकर चारों तरफ देखा तो हमारे घर से 150-200 मीटर दूर आसमान में धुआं उठता दिखाई दिया… इतनी दूर से पानी ले कर दौड़ना तो मुझे थोड़ा बहुत समझ आया… जानवरों को खोलने वाली बात समझ नहीं आई… बाबा आसमान की ओर देख हाथ जोड़ प्रार्थना कर रहे थे… थोड़ी समय में बाबा की प्रार्थना समाप्त हुई… वे आंगन में ही पड़ी एक खटिया पर सर झुकाकर बैठ गये…
मैंने पूछा बाबा “ये हरकू कौन है….”
“हरकू नईं हरकू काका …. हमसे छोटा है इसीलिये हमारे लिये हरकू है … मगर हरकू तुम्हारा काका है… आज सबेरेई तौ आऔ थौ नई पन्हैयाँ (गाय / बैल के चमड़े के बनाये हुए जूते) बनाकै लाऔ थौ.. तब देखा था ना…”
“जी बाबा जी …. मगर उनके घर में आग लगी है तो हम क्यों भरे बर्तन ले-लेकर दौड़ रहे हैं…”
मुझे आश्चर्य हो रहा था कि वे चाचा-ताऊ जो अपने हाथ धोने का लोटा भी राधे काका से उठवाते हैं … भरी गघरियां लेकर कैसे दौड़ गये…. वो भी उस हरकू काका के घर में लगी आग बुझाने जिसे सुबह गाली देकर ‘बड़े भाव बढ़ रये हैं तेरे’ कह रहे थे…
“बेटा जेई तो हमारे गाँव और तुम्हारे शहर कौ अंतर है … यहाँ सारा गांव एक परिवार कुटुम्ब की तरह रहता है … आपस में मनमुटाव होते रहते हैं मगर कोई आपत्ति आ जाये तो तुरत सब एक के एक… तुम्हारे बाप की शादी थी तब धूमधाम से बारात ले के तुम्हारी अम्मा को लाने ढोल नगाड़े तेकर गये लौटते तक बड़ी माता आ गईं (चेचक फैल गई) गांव में … चार-चार घर में … ढोल तांसे वालों को बिना बजाये लौटाना पड़ा… पूरे गांव में बघार लगना बंद…. तो दुल्हैन …. तुम्हारी अम्मा… को आतेई से बिना बघरी दाल … भुर्ते से रोटी खाने मिली… “
“अच्छा बाबा…. मगर हरकू काका का घर तो बहुत दूर है… हमारे खुद के घर पानी भरने सिध्दि काकी आती हैं …. फिर भी यहाँ से पानी लेकर गये… और फिर रस्सी साथ लेकर क्यों गये हैं… और जाने से पहले जानवरों को क्यों खोला ?”
“बेटा हमारे पिता-बाबा ने हमको ऐसा ही करने को कहा … हम करते आ रहे हैं…”
ठीक से कुछ समझ नहीं आया… मगर इतना समझ आ गया कि बाबा का जबाब देने का मन नहीं है … मैं चुप हो गया क्योंकि बाबा शायद मेरे सबाल दर सबाल से नाराज हो रहे थे… डेढ़-दो घंटे बाद तीनों चाचा-ताऊ थके थकाये खाली बर्तन और रस्सी लेकर लौट आये उन्होंने बताया कि हरकू और मटरू काका के पूरे मकान जल गये और उनके बगल में सरकू काका का मकान भी आधा जल गया था!
रात को मेरे एनसाक्लोपीडिया पिताजी आ गये तो उनसे भी वही सवाल पूछे….
उन्होंने बताया कि “यदि पास के कुएं से रस्सी से बर्तन भरने की कोशिश करते तो तीनों मिलकर भी एक बार में एक ही बर्तन भर पाते और तीनों बर्तन भरने में जितना समय लगता उतनी देर में आग इतनी अधिक बढ़ चुकी होती कि तीनों का प्रयास निरर्थक जैसा हो जाता …. गांव घर पास-पास बने होते हैं…छप्पर ज्यादहतर घासफूस के होते हैं… आग जरा में पूरे गांव को अपने दायरे में ले सकती है…. हमारे घर तक भी आ सकती है…. इसीलिये ही जानवरों को सबसे पहले छोड़ दिया जाता है कि यदि आग हमारे घर तक भी पहुँच घई तो हम पहले अपनी जान बचाने भागेंगे… और शायद तब जानवरों को भूल जायें … या तब जानवर भी घबराहट में भागते हुय़े हमें ही चोट ना पहुंचा दें… इसीलिये पहले ही जानवरों को खोलकर घर से बाहर कर देते हैं… गांव में ऐसी ही परिपाटियां हैं… जिनका कोई ना कोई आधार जरूर है … जिनपर कोई शंका नहीं करता …. पीढ़ी दर पीढ़ी सुनते और पालन करते आ रहे हैं कोई प्रश्न नहीं उठाता…. बस पालन करते हैं…!”
आज जब मैं सब समझने ही नहीं समझाने भी लगा… तो लगता है कि…
काश मेरे गाँव सा मेरा देश भी हो जाये….