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परम सत्य!

यही #सत्य है और यही #परमसत्य!!
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#ईश्वर अर्थात #प्रभु अर्थात #परमात्मा संसार की समस्त #वनस्पतियों, कीटों, पक्षियों, #प्राणियों अर्थात समस्त चेतन जगत में विद्यमान प्राणों या आत्माओं का ही समग्र स्वरूप है!

जिन्हें जड़ अर्थात निष्क्रिय या प्रतिक्रिया विहीन माना जाता है वास्तव में वे भी निष्क्रिय नहीं.. प्रतिक्रिया, गति और क्षरण उनमें भी है! किंतु इतना धीमी प्रतिक्रिया या गति है जो हम मनुष्यों के अल्प जीवन काल की तुलना में नगण्य है ! इसीलिए वे अजर अमर और अटल प्रतीत होते हैं जबकि है सभी कुछ नश्वर ! समस्त संसार!

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वैज्ञानिकों के खोजे ब्लैक होल वर्णन भी यही कहता है और गीता के ग्यारहवें अध्यात्म में वर्णित विराट स्वरूप में अर्जुन को दर्शन देते श्रीकृष्ण के मुख के वर्णन और ब्लैक होल में  कोई अंतर ही नहीं दिखता…
जबकि विज्ञान का ब्लैक होल विगत 100 वर्षों के अंदर खोजा गया और गीता का लेखन  न्यूनतम 1000 वर्ष से अधिक पूर्व…!
क्या यह आध्यात्मिक चिंतन की गहनता मापन पर महाश्चर्यजनक तथ्य नहीं?
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अब यदि आत्मा को जानने-समझने -पहचानने पर विचारें तो
आत्मा की अनुभूति चेतना के रूप में होती है और चेतना की अभिव्यक्ति विचार है!
विचार की गुणवत्ता चिंतन पर आधारित है
और चिंतन अध्धयन आधारित…
अध्ययन का विद्यालय यही असार संसार और समस्त मानव समुदाय…
अनुभूति अध्ययन का आहार!
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इसीलिए परमात्मा के अंश / प्रकाश / कृपा रूपी आत्मा से बढ़कर कोई और हितैषी हो ही नहीं सकता!
वही हृदय है और वही मस्तिष्क!
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विचार की 4 निर्दिष्ट स्थितियों (मन, बुध्दि, चित्त और अहंकार) अनुसार ही हम हृदय या दिल से और दिमाग या मस्तिष्क से विचारना कहते, जानते, मानते हैं!
विचार में मन के स्तर का विचार वज्ञ है जो दर्शन उपरांत उत्सुकता, लालच, आकर्षण, प्रतिकर्षण, भय, रति, श्रद्धा आदि भावों को जन्मता है.. इन्हीं आरंभिक विचारों की स्थिति को बुद्धि सहेजने, स्वीकारने, नकारने, झटकने या अनदेखा करने आदि के निर्णय तक पहुंचाकर निर्धारण करने प्रेरित करती है.बुद्धि के उस निर्णय पर एक समयांतराल विशेष तक लगातार चिंतन में उपजने वाले विचार और पुनर्विचार का चिंतन ही चित्त की वृत्ति दर्शाता है! और चित्त द्वारा निर्धारित को दृढ़ता पूर्वक स्थिर और स्कथायी अभिमत में बदलने को विचार की अहंकार वाली सर्वोपरि स्थिति कहा जाता है !
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इसीलिए किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्धारक उसके विचार हैं! व्यक्ति में दर्शित शेष समस्त दर्शित व्यक्तित्व निर्धारण में केवल सहायक की भूमिका निभाते हैं…
और
हर व्यक्ति के विचार उसके व्यवहार में परिलक्षित…

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प्रत्येक व्यक्ति की ही तरह हर परिवार, कुल, जाति, धर्म, प्रतिष्ठान, संस्था, संगठन, ग्राम, नगर, प्रदेश, देश आदि स्थान  विशेष के लोगों का औसत व्यवहार उस  जनसमुदाय के विषय में सूचित तो करता ही है उस जनसमूह के भाग्य का निर्धारण भी करता है !
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शायद इसीलिए दुनिया भर में निष्पक्ष एजेंसियां के सर्वे में सबसे खुशहाल, स्वस्थ और संपन्न वे ही देश-प्रदेश या शहर हैं जहां के लोग सदाचारी,  दयावान, उपकारी और अनुशासित पाये जाते हैं! वे प्राकृतिक सौंदर्ययुक्त और प्राकृतिक आपदा रहित भी हैं ! अर्थात जहां  के औसत निवासियों का व्यवहार उत्तम है वे उतने ही अधिक ईश्वरीय आशीर्वाद पा रहे हैं ! भारत के अनेक तीर्थ स्थल जहां के लोग तीर्थस्थल अनुरुप सदाचारी हैं वहां भी वैसे ही नैसर्गिक आशीष और खुशहाली को स्पष्ट देखा जा सकता है!.

क्या इससे सदाचार और शुभ का निकटवर्ती संबंध स्थापित होते नहीं लगता?
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ना लगे तो आगे भी करते रहिये…
“मुंह में राम बगल में छुरी!”

और

लगे तो
“बना लीजिए अपनी आत्मा को ही अपना गुरु… और
बढ़ा दीजिए सत्कर्मयोग की दिशा में कदम..

और

पा जाइये ईशकृपा..!.

#सत्यार्चन

Sathyarchan VK Khare
Author: Sathyarchan VK Khare

यथार्थ ही अभीष्ट हो स्वीकार विरुद्ध हो भले..!

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