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बनायें, निभायें या तोड़ें  परम्परायें !

  • बनायें, निभायें या तोड़ें  परम्परायें !
  • 28 मई 2017
    10:43
  •  • कोई भी परंपरा दुनियाँ बनने के साथ-साथ तो नहीं ही बनी होगी!
  •  • उन्मुक्त, उच्छृंखल और अनवरत स्वच्छंद विचरते से थककर कभी किसी ने कोई कार्य, कोई ऐसा संजीदा आचरण किया होगा, जिसे दूसरों ने अपनाकर खुशी पाई होगी!
  •  • ऐसे ही किसी का कोई आचार-विचार या व्यवहार सर्व जन हिताय लगा होगा, तभी सार्वजनिक अनुकरणीय होकर, परंपरा के रूप में ढला होगा!
  •  • “जो परम्परा आदि काल में अनुकरणीय थी क्या वह आज भी उपयुक्त है?”
  •  • “आज जिस परम्परा के सृजक / वाहक हम बने हैं,  क्या कल भी वही उपयुक्त रहेगी?”
  •  • “बिना किसी परम्परा के, समाज; जंगल बन जायेंगे! किन्तु आदिकाल की परम्पराओं को निभाते रहकर भी तो, जंगली ही प्रमाणित हो रहे हैं हम!”
  •  • इसीलिए; अपनी वर्तमान पारिस्थितिकी के
    अनुरूप,
    अपने लिये ,
    अपनी राह,
    अपनी परम्परा,
    सृजित कर,
    अपनी धरती पर,
    अपना स्वर्ग
    आप
    स्वयं ही बनाइये!!!

    #’सत्यार्चन’
    #SatyArchan
    #SathyArchan
    (#-A Global Name @ Web
    May Searched for other ARTICLES)
traffictail
Author: traffictail

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