मकसद को ढूंढ़ते….
या मकसद के पीछे भागते लोग
अकसर याद नहीं रख पाते …
अपनों को ..
अपनों की जरूरतों को …
अपनी भूख को …
प्यास को ….
अपने आप को…
मगर कहां मुमकिन …
कितना मुमकिन …
कब तक …
कितनी देर तक….
दूर रह सकेगा कोई …
अपने आप से ..
अपने भीतर के उस आईने से
मिलने से कैसे बचेगा …
जो खोल देता है …
अपनी छाया और अपने आप के बीच ….
आने वाले सारे पर्दे
सारी पर्तें
एक के बाद एक
हटती चली जाती हैं
फिर मिलना ही होता ह …
सामना करना ही होता है …
शून्य से … बुलबुलों से छीने अनंत प्रश्नों का …
सब उघड़ता चला जाता है…
एक-एक कर सारे सारे पर्दे टूट जाते हैं
चिलमन तार तार हो जाते हैं…
तब …
हाँ केवल तभी
हो पाता है …
स्वयं से …
अपने आपसे …
मधुयामिनी सा
मधुर मिलन…..
सत्यार्चन