देह, प्राण और भाग्य!
देह वह यथार्थ है
देह वह यथार्थ है जो सहज ही प्रदर्शित है परिलक्षित भी और अनुभूत भी… किंंतु केवल अनुभूत परंतु अदृश्य प्राण/ मन / विवेक ना तो बिन देह के प्रदर्शनीय है ना ही दर्शनीय!
*फिर मानव क्या है?*
मानव तन वह भवन है जो मंदिर भी हो सकता है, कारागार भी, मदिरालय भी, नृत्यशाला भी और विद्यालय भी … और वैश्यालय भी….
*देह मंदिर कब होगी?*
जब किसी देह रूपी भवन में दैवीय गुण युक्त प्राण या पवित्रात्मा विराजमान हो और यह प्राण, आराध्य ईश की काल्पनिक प्रतिमा के रूप में अदृश्य उपस्थिति प्रदर्शित करते हों तो पवित्रात्म निर्देशित देह मंदिर सी होगी! उसी तरह ज्ञानवान ज्ञान दाता प्राणप्रतिष्ठित प्रतिमा देह को विद्यालय बना देगी…! उसी तरह अन्य सतो या रजोगुण युक्त आत्मा प्रभावत: व्यक्ति (देह+प्राण) को, वैसा ही (स्थाई या सामयिक) प्रदर्शित करेगा जैसा कि आत्मा का संचित / परिवर्धित/ त्वरित संस्कार हो…!
*ना तो व्यक्ति केवल दैहिक हो सकता है ना ही केवल आत्मिक… !*
*बिना प्राण के देह निरर्थक है तो बिना देह के प्राण निष्क्रिय!*
देह.और प्राण दोनोँ का सम्मिलित आचरण ही व्यक्ति का कर्म है…
राग-द्वेश, विरक्ति, न्यायप्रियता भी कर्म ही हैं…
कर्म ही भाग्यविधाता है… निर्माता है… निर्धारक है! अतः कर्म ही (नेपथ्य में संचित कर्म निर्धारित भाग्य सहित) फलदायी है!
हानि-लाभ, यश-अपयश भी भाग्य अनुसार कर्म आधारित फल ही हैं…
मेरी सीमित बुद्धि के सम्पूर्ण प्रयोग से, मैं तो इसी तार्किक उचित (जो मेरे लिए स्वभावतः आवश्यक है!) निष्कर्ष तक पहुंच सका हूं!
– सुबुद्ध सत्यार्चन