आत्मचिंतन, आत्मप्रेरण, आत्मनिर्देशण से आत्मनिर्भर और आत्मसम्मानित मनुष्य के सामने सारे संसार के समस्त विषयादि निर्मूल्य हो जाते हैं…
क्योंकि समस्त मिथ्यात्मक कामनाएं समित और नियंत्रित हो चुकी होती हैं … उसके सामने भूत और भविष्य सहित सभी कुछ स्पष्ट होता है… हर प्रश्न के उत्तर… और हर समस्या का निदान होता है… फिर क्या बचता है? कुछ भी नहीं !
कामना भी नहीं!
क्योंकि कामना तो अप्राप्त की होती है… जब संसार के सारे स्वादिष्ट व्यंजनों से भरा थाल सामने हो तो क्या सभी को चखना संभव होगा?
कुछ चखने की कामना (इच्छा/ लालसा/ प्यास) शेष होगी?
नहीं !
फिर भी जीवन का यथार्थ है भूख तो प्रतिदिन वह भूखा भोजन तो करेगा किंतु लालसा युक्त होकर नहीं … मात्र चयन कर या चयनरहित क्षुधाशांत ही कर रहा होगा…!
ऐसा ही अंतर है आंनद, परमानंद और ब्रम्हानंद में…
यदि थाली में कभी किसी मनचाहे व्यंजन की प्राप्ति होना आनंदकर है… तो समूची थाली में सभी कुछ पसंद का होना परमानंदकर होगा… किंतु जब जिस व्यंजन की कामना कीजिये तभी वही सम्मुख होना सम्भव हो जाये तो वह ब्रम्हानंद हुआ… और ब्रम्हानंदमयी को कोई कामना होगी ही नहीं… कैसे हो सकती है और क्यों होगी ? इच्छा तो अप्राप्त की होनी होती है ना?
कोई चिंता भी नहीं…!
और यही जीवंत मोक्ष की स्थिति है!
– ‘सत्यार्चन’ का ‘सतदर्शन’….