अभी-अभी, दो-दो माननीय उच्च न्यायालयों के, एक जैसे विषय पर, दो महत्वपूर्ण निर्णय, दोनों राज्यों के शासन के विरुद्ध आये! पहला आज राजस्थान उच्चन्यायालय ने राजस्थान सरकार को संविधान में आरक्षण का 50% तक सीमित किये जाने का हवाला दे गुर्जर/ पाटीदार आरक्षण को अवैध करार दिया… ! दूसरे में, विगत दिनों, मध्यप्रदेश शासन के पदोन्नति में आरक्षण को अनुचित ठहराया गया है!
इन निर्णयों के परिप्रेक्ष्य में कुछ बातें स्पष्ट हुईं और कुछ पर विचारना आवश्यक हो गया है!
इन निर्णयों से स्पष्ट है कि या तो, 70 सालों के अनुभवी विचारविमर्ष के बाद, उच्च न्यायालय, पहली बार संविधान की व्याख्या में सक्षम हुए हैं या फिर समर्थ को संविधान की धाराओं की व्याख्या अपने अनुरूप करने / कराने से रोकना संभव नहीं है (दोनों प्रदेश की सरकारें सर्वोच्च न्यायालय में यही करने का प्रयास कर रही हैं / करने जा रही हैं) !
माननीय न्यायालय के निर्णय से पता चला कि सरकारें, चुनावी तुष्टीकरण के लिये, संविधान के विरुद्ध सामयिक आचरण करती रहती हैं … क्योंकि शासकीय विधाई योजनाकारों में सर्वोत्तम कानूनविद सलाहकर्ता भी होते हैं जो सांवैधानिक सीमाओं को जानते तो अवश्य हैं किन्तु अपने शासक को उनमें बँधने की सलाह से शायद दूर ही रहते होंगे…!
कुछ भी हो लेकिन आरक्षण अधिनियम को पुनर्व्याख्यायित करना / इसपर पुनर्विचार करना आवश्यक हो गया है!
विचारणीय है कि यदि वर्तमान आरक्षण प्रणाली उन्हीं वंचित आरक्षितों के हित-सम्वर्धन में असक्षम हो चुकी है, जिनके उन्नयन के लिये इसे लागू किया गया था, तो इसे निरंतर जारी रखने का क्या औचित्य है!
क्या यह राजनैतिक तुष्टिकरण का वीभत्स उदाहरण मात्न शेष नहीं रह गया है???
सविनय अनुरोध है कि शासन एक सर्वेक्षण कराकर देख ले कि-
1 – आरंभ से अब तक कितने प्रतिशत आरक्षित वर्ग के परिवार पहले पहल वर्तमान आरक्षण नीति से लाभान्वित हुए हैं!
2- कितने प्रतिशत गैर सुविधा भोगी आरक्षित परिवार के सदस्यों, को विगत ३ दशक में, वर्तमान आरक्षण नीति का लाभ मिल सका !
3- दूसरे ऐसे जरूरतमंदों के लाभार्जन के प्रतिशत का ग्राफ प्रति वर्ष किस तेज़ी से नीचे गिरते जा। रहा है!
मेरा दावा है कि सर्वेक्षण के परिणाम में, विगत वर्ष तक ही वास्तविक दलित / वंचित लाभार्थी १ प्रतिशत से भी कम परिलक्षित होंगे!
और
99% सुविधाभोगी आरक्षित कुल में जन्मने के कारण मात्र, निर्लज्जता पूर्वक वंचितों के अधिकार को लूटने वाले निकलेंगे!
साथ ही वर्तमान आरक्षण प्रणाली से क्या यह परिलक्षित नहीं होता कि –
1- आरक्षण व्यवस्था का आधार, आरक्षितों की अनारक्षितों के समकक्ष योग्य होने में नैसर्गिक अक्षम मान लेना है!
और यदि ऐसा है तो भारत के अतिमहत्वपूर्ण एवं महत्वपूर्ण शासकीय पदों पर कार्यान्वयन का दायित्व स्वयं शासन द्वारा
अ-सक्षम निष्पादकों द्वारा कराया जाना सुनिश्चित किया गया है!
2 – पदोन्नति में आरक्षण व्यवस्था से यह प्रमाणित किया जाने का प्रयास है कि, संदर्भित आरक्षित वर्ग, सुविधा पाकर भी स्वयं को सुयोग्य बनाने में अक्षम है और साथ ही भारत की संसद सहित समस्त महत्व के शाशकीय पदों पर उपलब्ध अधिक योग्य व्यक्तियों की अपेक्षा बहुत कम योग्य व्यक्तियों से दायित्व निर्वहन कराया जा रहा है!
साथ यह भी ध्यान देने योग्य है कि ऐसा किया जाकर राजनैतिज्ञों ने राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि में स्वयं माननीय बाबा साहब अंबेडकर के सुझाव को तोड़मरोड़ डाला है! माननीय बाबा साहब के सुझाव में केवल तृतीय एवं चतुर्थ वर्ग के शासकीय पदों पर 33% नियुक्तियां आरक्षित श्रेणी से की जाने का प्रस्ताव था! यह भी ध्यान देने योग्य है कि उस समय ऐसी भर्तियों के लिये लिखित या मौखिक परीक्षा का प्रावधान ना होकर सक्षम अधिकारी द्वारा, योग्यता मानदंड पूरे करने वालों की सीधे नियुक्ति ही की जाती थी!
3- आरक्षण की मूल अवधारणा के अनुरुप प्रतियोगिता होने पर, विशिष्ट अनुसूची में वर्गीकृत जातियों के, सफल प्रत्याशियों की संख्या का एक निश्चित प्रतिशत तक होना, सुनिश्चित करना प्रस्तावित था, इसमें अनारक्षित के अंतिम सफल प्रत्याशी के समकक्ष या अधिक योग्यता अंक लाने वाले को, आरक्षित में ना मानने संबंधी, कोई निर्देश नहीं था! किंतु निहित राजनैतिक स्वार्थ सिद्धि की प्यास ने आरक्षण सूची में सम्मिलित रहने के लिये अनारक्षित से कम योग्य सिद्ध होने को आवश्यक बना दिया!
इसी कारण आरक्षित वर्ग, आज भी अनारक्षित के समकक्ष योग्य होने में, आरक्षण का लाभ छिनने के भयवश आनाकानी कर रहा है!
4- अनारक्षित से न्यून योग्यता की इसी आवश्यकता की अवधारणा के चलते अनुसूचित जाति/ जनजाति, ओबीसी, महिला, पूर्व सैन्य कर्मी / आश्रित, तलाकशुदा / परित्यक्ता महिला, स्व.सं.सै. आदि के बाद सर्वथा योग्य और पूर्ण निर्दोष सवर्णों को 10% एवं सवर्ण पुरुषों को 5% से भी कम संख्या में अवसर उपलब्ध हो पा रहे हैं…!
5- भारतीय आरक्षित वर्ग के आरक्षण का लाभ छिनने के भय से अयोग्य, एवं अनारक्षित अवसर की अनुपलब्धता से कुंठित कंधों पर भारत की प्रशासनिक व्यवस्था का दायित्व है!
“हमारे योग्य कर्णधारों को मातृभूमि के प्रति समर्पण का मूल्य स्वयं से कम / बहुत कम योग्य के अधीन रहकर जैसे-तैसे जीवनयापन करने या अपनी (अ/न्यायी?) मातृभूमि के प्रति समर्पण को भूल योग्यता का उचित मान करने वाले देश में रोजगार तलाशने की विवशता हो गई है!”
आज आरक्षित वर्ग के मेरे परिजनों के उचित उत्थान पर विचार की आवश्यक हो गया है. मुझे लगता है कि जिन जातियों / जनजातियों को वंचित माना गया है उनमें से वास्तविक वंचितों को चिन्हित कर उनका सर्वांगीण उन्नयन करने प्रारंभ से ही उनकी निःशुल्क स्तरीय आवासीय अतिरिक्त समर्पित व्यवस्था की जानी चाहिये जिससे वे अनारक्षितों से प्रतियोगिता में बड़े अंतर से और ससम्मान आगे निकल सकें! ना कि जातिप्रमाण के आधार पर अयोग्य रहते हुए भी, योग्य अनारक्षितों का अधिकार छीनकर !
#सत्यार्चन