आशायें
क्यों इतना सीमित सोचते हो ….
अंदाजों की / आशाओं की/ आकांक्षाओंं की सीमा छोटी क्यों हो ….
हो सकता है कोई दीप दृढ़ विश्वास लिये प्रतीक्षित हो तुम्हारे लिये…
तुम से आगंतुक पथिक की राह जगमग करने…
कहीं कोई बादल आल्हादित हो रहा हो
केवल अंक में भर नखसिख स्नेहशिक्त करने का सोचकर.. ….
कोई समुद्र बांहें फैलाये बैठा हो …
महावेग से आते दरिया का वेग ….
अपने में समाहित करने को आतुर ….
क्यों ना सजायी जायें वे आशायें …
जिनका एक कतरा भी मिल जाये
तो जीवन सम्पूर्ण हो जाये
जिसके पूरे होते ही ..
विगत की समस्त न्यूनतायें
मिल-मिलाकर भी …
नगन्य ही रह जायें…. ….
अनंत…
हाँ अनंत तक बिछी हैं
सम्भावनायें…..
-सत्यार्चन