हमारे मिलन के गवाह…
हमारे मिलन के गवाह….
याद हैं तुम्हें ?
वो पत्थर, उसके बाजू में तगा पेड़ , वो रंग-रंगीले महकते गुलाब,
वो झील का किनारा…
याद होंगे ना तुम्हें….
अब वहाँ मेला लगता है
रोज शाम . ..
वो पत्थर जिसपर बैठकर
हम गलबहियाँ डाल बैठा करते थे …
घंटों बतियाते थे…
एक दूजे से दूर ना रहने के वादे
अलग अलग अल्फाजों में रोज-रोज दोहराते थे…
जैसे हम खुदको ही यकीं दिलाते थे
अब वही पत्थर शाम के ढलने के साथ
तवे सा गर्म हो जाता है…
पेड़, शराबियों सा नाचने लगता है…
गुलाबों के फूलों की खुसबू गायब हो जाती है
काँटे इतने बड़े हो जाते हैं कि फूल नजर ही नहीं आते हैं …
झील की मछलियां बेचैन होकर बाहर निकल आती हैं…
लोग हैरान हैं…
दूर-दूर से लोग इन्हें देखने आते हैं!
कभी-कभी मैं भी वहाँ जाता हूँ …
अब तो ले जाया जाता हूँ!
मेरे वहाँ जाने से
पत्थर से ज्वाला निकलने लगती है,
पेड़ पागलों की तरह अट्टहास करता, वीभत्स नाच करता है …
गुलाब के फूल बेरंग हो जाते हैं..
झील से निकल मछलियाँ, मेरे कदमों से सीने तक टकराया करती हैं…
लोग हैरान हैं….
शायद तुम भी हो रही होगी…
मगर मैं नहीं!
हम दोनों ही तो हैं
इन नादानों की इस बेहाली के गुनहगार …
अच्छा है; ये पत्थर, पेड़, बाग, सब, चाहकर भी,
रोज आते तमाशबीनों से, कुछ कह नहीं पाते
ना ही दूसरे पत्थरों, पेड़ों, बागों, झीलों को
जा जाकर कुछ सिखाते …
नहीं तो किसी प्रेमी जोड़े को कोई जगह
बैठने, और बाद में तोड़े जा सकने वाले वादों को करने के लिये कैसे मिलती…
दुनियाँ में झूठा या सच्चा प्रेम भी ना बच पाता शायद…
फिर दुनियाँ ही कहाँ बचती …!
मैं सब जानता हूँ …
मानता हूँ…. अंदर ही अंदर अपमानित भी होता हूँ…
शर्मिंदा हूँ ! मेरे अब तक बने रहने पर …
पर मै झुठलाता हूँ खुद को…
समझाता हूँ…
समझकर भी सबसे अनजान बन जाता हूँ…
अब मेरा बहुत नाम हो गया है यहाँ ….
फकीरों में फकीर
पीरों में पीर गिना जाने लगा हूँ मैं…
अपने शहर में लोग हैरान हैं…
तुम अब भी हैरान हो???
मगर मैं नहीं!