(माय गव. पर मेरा प्रस्ताव)
एक नये कर या अर्थदण्ड के विधान का उचित समय आ पहुँचा है…
‘आत्महत्या’ के प्रयास में असफल रह जीवित बच जाने वालों पर वैधानिक कार्रवाई कर दंड का विधान था… किंतु ऐसे प्रयास में सफल होने वालों को कोई सजा देना संभव ही नहीं था इसीलिये आत्महत्या के प्रयास में जीवित बचने वाले को सजा का प्रावधान जो आधाअधूरा और अतार्किक था उसे समाप्त कर दिया गया… सर्वथा उचित है… किंतु… आत्महत्या को प्रेरित (या कहें कि विवश ) करने वालों पर तो हत्या के विधान अंतर्गत कार्रवाई आज भी की जाती है..! कौन और कैसे होते हैं ये लोग… किस तरह प्रेरित करते हैं कि कोई स्वयं को समाप्त ही कर ले ?
आत्महत्या के प्रेरकों में लगभग 100% आत्महंता के निकटजन ही होते हैं… जिनमें परिजन, प्रेमी, पीड़क पड़ौसी, सहकर्मी, संगठित अधीनस्थ या तेजतर्रार या दुष्ट बॉस… आदि शामिल किये जा सकते हैं…! किंतु सबसे पहले स्थान पर सर्वाधिक जिम्मेदार कोई है तो वो परिजन ही हैं..!
आत्महत्या करने वाले व्यक्ति के परिवार पर जाँच से पहले ही एक निश्चित अर्थदण्ड का प्रावधान किया जाना चाहिए जो स्वमेव निर्धारित होने योग्य बनाया जाये… जिसका वास्तविक मूल्य जाँच के बाद निर्धारित किया जा सके…
ऐसे कर / अर्थदण्ड का भार परिवार की विगत 3 वर्ष की औसत वार्षिक आय का कम से कम एक चौथाई अवश्य हो…
ऐसे अर्थदंड से परिवार के सदस्यों का उनके अन्य परिजनों के प्रति दायित्व बोध कराया जा सकेगा और आत्महंता को चरमपंथी कदम उठाने से निरुत्साहित भी..!
आज की बाजारबाद प्रभावित दुनियाँ में
पारिवारिक विघटन के पक्षधर तो पहले ही 80% से अधिक लोग हो चुके हैं…! भारत के तो शीर्ष राजनीतिज्ञ तक उन्मुक्तता के पक्षधर और दायित्वबोधक परिवार प्रथा के विरुद्ध दिखाई देते हैं…!
अधिकांश परिवार प्रथा के विरुद्ध आचरण करने वाले (शायद अनजाने ही) पारिवारिक विघटन की #आत्मघाती_आग को हवा देने वाला व्यवहार कर रहे हैं…
समझने वाली बात है कि “यदि परिवार बच सके तो ही समाज और देश बच सकेंगे… अन्यथा सर्वनाश सन्निकट ही दिखता है..!”
सुख और समृद्धि भी पारिवारिक सामंजस्य के मोहताज हैं.
तीव्र गति से हो सकने वाले कम समय में अधिकतम विकास का इच्छुक तो हर कोई है किंतु इस उद्देश्य की प्राप्ति में अपने योगदान से जी चुराने वाले अधिक हैं जबकि बिना अतिरिक्त श्रम किये बिना बड़े संघर्ष के और संघर्षों के दौरान बिना अतिरिक्त कष्ट सहन किये द्रुतविकास संभव हो ही नहीं सकता! इसीलिए अब तक के इतिहास में जो भी लोग फर्श से अर्श तक अपनी कीर्तिपताका स्थापित करने में सफल रहे वे दो में से एक प्रकार के ही हैं…
पहले वे जिनने अपने लक्ष्य को पाने अपनों को महत्व नहीं दिया और आगे बढ़ गये और दूसरे वे जिनके लक्ष्यों को उनके अपनों ने अपना लक्ष्य भी बना लिया ! दूसरे शब्दों में जिन परिवारों में प्रत्येक परिजन अपने निजी लक्ष्य के साथ-साथ शेष परिजनों के लक्ष्यों में रुकावट की जगह सहयोगी है सकते हों वे उस परिवार के फिर शेष सभी स्वप्नदर्शी अपनी आधी-अधूरी जिन्दगी जीकर मर-खपने खपने वाले पशुओं से भी बदतर स्थिति के साक्षी बनते रहते हैं…! कुछ के स्वप्न सीने में ही दफ्न रह जाते हैं तो कुछ के प्रयास आधे-अधूरे ही छूट जाते हैं…!
अपने किसी ना किसी दिवास्वप्न में असफलता से निराश ही आत्महत्या जैसा निकृष्ट कदम उठाते हैं जिसके सर्वाधिक दोषी तो वे स्वयं होते ही हैं किंतु उनके निकट जन भी बराबर के ही दोषी हैं…! और संयुक्त अभियुक्तों के दोष की सजा किसी एक को दी जानी तो सही नहीं … सभी को मिलनी चाहिये!
इससे विकास की गति को बल देने वाली योजना पर शेष सभी को चर्चा करने की प्रेरणा मिलेगी जिससे उपयोगी योजनाओं पर अमल की गति बढ़ेगी तो विकास की गति भी बढ़ेगी ही बढ़ेगी..!