मेरे मकां में मैं हूँ कहाँ?
महामना;
मकान लेकर कहाँ कभी कोई जा पाया है…?
विश्वामित्र जी भी नहीं जा पाए थे..
छूट गया था यहीं ….
छोड़ना पड़ गया था…!
सभी का छूटता है..
और जो सर्वविदित छूटने के लिये ही बना है वह जब छूट रहा होता है तो रोता है…
इंसान अजब होता है..
देह की पेकिंग में जन्मे
बालक की देह को
अपनी देह से स्पर्ष कर
आनंदित हो लेता है…
वो देह रूपी पेकिंग से ही बरतते बरतते आखिर…
एक दिन
पेकिंग से मुक्त हो
वापस प्रेषक के ही पास पहुँच जाता है…
वो जो सजी धजी पेकिंग को ना केवल उपहार मानता ही है बल्कि सबसे मनवाता भी है…
ये इन्सान बड़ा नादान है
जो जानता तो है
पर जानबूझकर
सच से मुँह चुराते हुए..
अन्जान बना रहता है…!
जानते हुए और मानते हुए भी
कि जीवन को
पेकिंग के भीतर रहना जरूरी नहीं है…
फिर भी वहीं रहकर ही
बिता देता है…
जाने क्यों!